Wednesday, September 14, 2011

लाहुल-स्पीति का इतिहास मेरी कलम से


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कुछ लाईने पढने से पहले
                   
                कुछ अरसे से चेतन और अवचेतन अवस्‍था में कुछ विचार जिन को रोक पाना बेहद मुश्किल था,मेरे मस्तिष्‍क पटल में हवा के तेज झोंकों के माफिक आ कर मेरी अन्‍तरात्‍मा को झकझोरने लगे। फिर किसी दिन फुरसत में चंद पलों के लिए सोचा कि जिन्‍दगी तो यूं भी गुजर-बसर रही है,और पल-पल समय के यूं ही निकल रहे हैं।घंटों के दिन,दिनों के महिने और महिनों के साल भी फटाफट निकल रहे हैं।आज जीवन में मन की तुष्टि के लिए सभी भौतिक चीजें तो नहीं हैं किन्‍तु सन्‍तुष्टि का स्‍तर पहले से ठीक है
       
                 अब आज उम्र की चालीस की दहलीज के करीब पहुंचने पर कुछ विचार जागा कि क्योँ न कुछ क्रियान्वित तौर पर किया जाये जिसे बरसों तक आने वाली पीढी याद रख सकें। आखिर समाज को भी पता रहे कि कोई शक्स था जिस ने कुछ विशेष कार्य या प्रयास तो किया था जिस कि वजह से उसे याद रखा जा सकता है 
          
           मेरे मन में एक दबी हुई यह ख्वाहिश रही है कि क्योँ न लाहौल-स्पीति के इतिहास को खंगाला जाये,जिस धरा से मैं सम्बन्ध रखता हूँ ओर जिस इलाके का मैं मूल रूप से बाशिंदा हूँ ,क्योँ न उसे टटोलूं और अपने नज़रिए से दुनिया को अवगत कराऊ कि लाहौल-स्पीति के इतिहास के कौन से अनछुए पहलू हैं,जिन पे रौशनी डालना अत्यंत आवश्यक है। मैं एक सम्पूर्ण इतिहासकार नहीं हूँ कि जड़ों में जा के तथ्यौं को खंगांलूं और फील्‍ड से आंकडे इकटठा करूं क्‍योंकि इतना समय अब  सचमुच में उपलब्ध नहीं है ।स्‍कूल-कालिज के समय से लाहौल-स्पीति के इतिहास को खंगालने की कोशिश करता रहा परन्तु समय की आभाव,पूंजी एवं साधनों की कमी,कैरियर के प्रति दबाब इत्यादि की वजह से अपने इस शौक और कशिश को दबाए रखा ।
       
              इसे मेरी खुशकिस्मती कहिए कि मेरा लालन-पोषण ऐसे परिवार में हुआ जहां बेहद समझदार और  बुद्जीवी गृह सदस्यों के बीच मुझे ज्ञानवर्धक माहौल मिला। अत: स्वाभाविक तौर पर मेरी रुचि भी पढाई के अतिरिक्‍त अन्‍य विषय वस्‍तुओं के सामान्‍य ज्ञान को हासिल करने में लगी रही। जो कुछ भी बुजुर्गो के मुख से सुना उसे या तो नोट कर लेता या उसे स्मृति पटल पर बिठा देता। मेरे आदरणीय पिता श्री सोनम दावा जी एक बेहद सुलझे हुए इन्‍सान एवं बुद्धिजीवी हैं वह हिमाचल प्रदेश प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त हुए ,उन्‍हें जनजातीय जिला लाहौल-स्पीति के बारे में,वहां के संस्कृति-संस्कार,धर्म और समुदाय के बारे में बहुत ज्यादा ज्ञान है और उनकी यादाश्त भी किसी आम आदमी की तुलना में जबरदस्त और तारिफेकाबिल है। उन्होंने लाहौल के इतिहास की कुछ घटनाएँ अपनी नंगी आँखों से देखी हैं और लाहौल-स्पीति के अच्छे-बूरे इतिहास को महसूस भी किया है। अतः उन के द्वारा सुनाई बातों और घटनाओं को हमेशा ध्यान से सुन कर मैंने काफी अरसे से अपनी डायरी में सुरक्षित कर रखी हैं जो बहुमूल्य हैं।
            
              इस के अलावा मैं हमेशा कहीं भी शादी-विवाह जैसे समारोह या घर में जब कभी मेहमान या रिश्तेदार इत्यादि इकठ्ठे होते तो वहाँ ध्यान पूर्वक उन की बातों में इतिहास के पलों को नोट कर घर आ कर डायरी में लिख देता था। इस तरह कुछ घूम-फिर कर ,कुछ लेखकों की किताबें छान कर तथा कुछ कानो से सुन कर मैंने लाहौल-स्पीति के इतिहास के कुछ अनछुए पन्ने लिखने की हिम्मत की है।

           मैंने हचिसन और वोगल अंग्रेज इतिहासकार( History of Punjab Hill states),कुछ भारतीय इतिहासकार जैसे कि एस.सी.बाजपाई द्वारा लिखित पुस्तक (Lahoul-Spiti:A Forbidden Land in. Himalayas.)व् प्राण चोपड़ा( On An Indian Border) द्वारा लिखित पुस्तक तथा स्थानीय लेखकों श्री आर.एन.साहनी जी(Lahoul:A Mystery land in the Himalyas) एवं श्री तोबदन जी (History and Religion of Lahoul) की लिखित पुस्तकें भी पढ़ी हैं.वैसे तो लाहौल-स्पीति पर एस.मुकर्जी व् एम.एस गिल जैसे भूतपूर्व उपायुक्तों ने भी प्रकाश डाला है किन्तु मैंने उन्हें नहीं पढ़ा है .इस के अलावा मोरैवियन मिशनरी तथा कैप्टन ऐ.पी.हार्कूट व् एम.एस.रंधावा जैसे विद्वानों ने भी लाहौल के इतिहास पे प्रकाश डाला है .
         
             इस ब्लाग में मैंने अपने नज़रिए से लाहौल-स्पीति के इतिहास पे प्रकाश डालने कि चेष्टा की है,जिस के कुछ तथ्यों पर कुछ लोगों को ऐतराज़ हो सकता है किन्तु इतिहास तो मीठे ओर कडवे तथ्यों का मिला-जुला समागम होता है। इतिहास का दायित्व होता कि सत्य के पहलुओं को ही उजागर करें किन्तु कई बार उचित स्‍त्रोतों के आभाव में किव्‍दंतियों और पारम्‍पारिक तौर पर सुनी-सुनाई बातों को भी इस में शामिल करना पड़ता है ,फलत: काफी-कुछ बाहर निकल आता ही है और हमें अपने अस्तित्व के बारे में बहुत-कुछ जानने का मौका मिलता है
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भूमिका
           
            
       किसी भी क्षेत्र विशेष का पूर्व इतिहास उस के वर्तमान को समझने के लिए आवश्यक होता है भूतकाल में घटित घटनाएँ मानव को अपने अस्तित्व के बारे में बताती हैं और उन जड़ों को कायम रखने में विशेष भूमिका निभाती हैं जिस पे किसी समाज की नीव रखी होती हैंइतिहास का कार्य भूतकाल में घटित घटनाओं का वर्णन करना है,किन्तु उचित उपलब्ध स्त्रोतों के बिना इतिहास को उजागर करना अत्यंत कठिन कार्य है एक इतिहासकार का दायित्व है कि गलत और भ्रामक तथ्यों से दूर रहा जाए अन्यथा उस के परिणाम कई बार घातक भी सिद्ध हो सकते हैं भोतिक स्त्रोतों के आभाव की स्थिति में कई बार इतिहासकारों को जनश्रुतियों और मोखिक तौर पर जनता-जनार्धन के मुख से सुनी -सुनाई बातों को भी आधार बना कर पेश करना पड़ता है  इस तरह मौखिक और उपलब्ध स्त्रोतों के आधार पर  जो समागम प्रस्तुत होता है,उस से हमें काफी-कुछ इतिहास के बारे में ज्ञान हासिल होता हैऐसा ही कुछ हाल लाहौल-स्पीति के इतिहास का है,जिस के लिए हमें यहाँ भूत काल में घटित घटनाओं के ज्ञान के लिए ज्यादातर जन-मानस के मुख से सुनी-सुनाई बातों पर निर्भर होना पड़ता हैइन में कुछ सच्चाईयां भी हैं और कुछ रहस्यमय बातें भी जो हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं
         
            जब ठोस लिखित स्त्रोतों की बात आती है तो आठवीं शताब्दी के बाद यहाँ बुद्ध धर्म का अभिर्भाव हुआ तो इस के प्रचार-प्रसार हेतू अपनाई गई भोटी भाषा जो मूलतःतिब्‍बत में प्रचलित थी,में लिखी गयी मंत्रो -उच्चारण से सम्बन्धित  एवं ज्ञानवर्धक पांडुलिपियों (दोबांग) में यहाँ के इतिहास और धर्म से सम्बन्धित कुछ बातें लिखी गयीं उदाहरण के तौर पर लाहौल घाटी के तांदी संगम के समीप मशहूर गुरु घंटाल मंदिर में संरक्षित स्वर्ण अक्षरों में जड़ी करमालेलुंग पांडुलिपि को पूरे हिमालय क्षेत्र में अब तक की सबसे पुरानी पांडुलिपियों में माना जा रहा है। इसी तरह स्पिति घाटी के किसी गोम्‍पा से मिली कराड़ा सूत्र पांडुलिपि को भी यहां के इतिहास जानने हेतु एक बहुमूल्य लिखित स्त्रोत माना जा सकता है
     
          अफ़सोस की  बात है कि लाहौल-स्पीति कि अपनी कोई मूल भाषा नहीं है अर्ताथ कोई लिपि नहीं है,यहाँ सिर्फ विभिन्न बोलियां बोली जातीं हैंअत उस वजह से भी लिखित स्त्रोतों का मिलना मुश्किल है।यदि हम भोटी को यहां की मूल भाषा समझें तो गलत होगा क्‍योंकि यह सिर्फ लामाओं और बुद्ध धर्म को अनुसरण करने वालों तक सीमित रहा है।भारत की गुलामी के वर्षों में कई यूरोपियन इतिहासकारों और विशेषकर ब्रिटिश अधिकारियों तथा मोरैवियन मिशिनरियों ने कुछ लिखित रूप में संजो कर रखा किन्तु उन का मुख्य लक्ष्‍य सिर्फ राजा-महाराजों के इतिहास  तथा धर्म को खंगालना ही रहा,जिस वजह से अन्य कई विशेष तथ्य छूट गयेकिन्तु उन के प्रयास प्रशंसनीय है और उन के लिखे गये लेखों से हमें लाहौल-स्पिति के इतिहास को जानने की एक पृष्‍ठभूमि मिलती है।मैंने इस ब्‍लोग में लाहौल -स्पीति के इतिहास के उन पहलुओं को दिखाने की  चेष्ठा की है जिन्हें सचमुच स्थानीय लोगों ने देखा,सुना और महसूस किया है और भ्रामिक तथ्यों को भी उचित माप-दण्डों के आधार पर प्रस्तुत करने की कोशिश की है
  
             मैंने यहाँ पृथक तौर पर लाहौल और स्पीति के बारे में बताने की कोशिश की है क्योँ कि दोनों इलाकों कि भोतिक स्थिति में अन्‍तर है और आपस में उतने सांस्‍कृतिक सम्बन्ध भी नहीं रहे हैं।भारत की आजादी के पश्‍चात इन दोनों पृथक भौगोलिक इकाईयों को मिला कर सन 1960 में एक पूर्ण जिला बना दिया गयासर्वप्रथम मैं लाहौल के इतिहास पे प्रकाश डालने की चेष्ठा कर रहा हूँ और द्वितीय हिस्से में पृथक तौर पर स्पीति के बारे में प्रकाश डाला है

लाहौल की भौतिक स्थिति  

              सम्पूर्ण लाहौल-स्पीति पश्चिमी हिमालय के 31 44' 57"अक्षांश उत्तर में तथा 76 46' 29"देशांतर  पूर्व में स्थितित है लाहौल-स्पिति चन्द्रा और भागा नदियों कि घाटियों और उन के संगम स्थल तक तांदी तथा वहाँ से पट्टन घाटी जो की चनाव नदी के साथ है,से चम्बा जिले के सीमा से लगते रोहली जो कि तिन्दी से 07 किलोमीटर है तक व् उदयपुर में चनाव नदी तक संगम करने वाले मयाड नदी की घाटी तक फैला है ,जहां सीमाएं जम्‍मू-काश्‍मीर के जंस्कर इलाके तक लगती हैं
लाहौल-स्पीति


    भारत की आज़ादी से पहले एवं हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिलने से पूर्व थिरोट नाले से रोहली तक वाले इलाके को "चम्बा लाहौल" और जो इलाका बारालाचा तक है उसे "ब्रिटिश लाहौल" कहा जाता थालाहौल के उच्च पश्चिमी क्षेत्र में लिंगती का मैदान और बारालाचा पास के उतर-पूर्व में छारब नाम की पर्वत माला है,जो लदाख क्षेत्र के सिंधु नदी तक एव स्पीति घाटी की तरफ घटती बढ़ती रहती हैसामान्य शब्दों में कहें तो यह इलाका हिमाचल के तीन जिले कुल्लू,चम्बा,किन्‍नौर और जम्‍मू'काश्‍मीर के लदाख के मध्यस्थ पड़ता है।स्पिति में इस की सीमाऐं चीन से भी लगती हैंवर्तमान समय में क्षेत्रफल के आधार पर यह हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है
    
                       लाहौल को यहाँ के स्थानीय लोगों अपनी बोलियों के हिसाब से इलाकों को विभिन्न नामों से पुकारते हैंभोटी भाषा के शब्द तोद का अर्थ है 'ऊंचा इलाका',पट्टन इलाके को चांगसा कहते हैं और उस का अभिप्राय है -"ऊतर दिशा का इलाका",वैसे ही लोग्साप् का अर्थ है "दक्षिण दिशा"मशहूर भयार तिर्लोकीनाथ जिसे लाहौल में रेबाग कहते हैं,के आस-पास के इलाके के लोगों को इसी मूल शब्द रेबाग से ही शायद रेऊफा कहते हैं

लाहौल का अर्थ

                   लाहौल शब्द के वास्तविक अर्थ के बारे में संशय है तिब्बती भाषा में लाहौल को "गारज़ा"(अज्ञात देश) एव "मौन" कहा जाता हैतिब्बती शब्द लहोयुल का अर्थ "दक्षिणी देश"से है,परन्तु वे इसे लदाख के संदर्भ में ही लेते हैंभोटी भाषा का शब्द "लहियुल"या ''लायुल''यानी "देवताओं का देश "भी उपयुक्त लगता हैप्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार राकहिल के अनुसार तिब्ती शब्द "लियुल "का अभिप्राय खोतान से है।श्री सोनम दावा जी(मैरे पिता श्री)के अनुसार सबसे उपयुक्‍त अर्थ ''दर्रों का देश''(The land of multiple passes)लगता है,क्‍योंकि सर्वविदित है कि यह घाटी चारों और कई दर्रों से घिरी है.यदि शब्‍दों के अर्थ पर भी ध्‍यान दें तो ''ला''का अर्थ दर्रा और ''युल'' का मतलब गांव या देश से है.

                कहते  हैं कि ईसा से लगभग 3000 वर्ष पूर्व मंगोल नस्ल के भोट और किरात लाहौल,किन्नौर से ले कर गढ़वाल तक रहते थेउस के पश्चात लगभग 1500 ई.पूर्व आर्य जाति ने हिमाचल प्रदेश में कदम रखा थावैदिक काल में हिमाचल के आदिवासियों को दस्यु और निषाद के नाम से जाना जाता थादिन दस्युओं और आर्यों के बीच समझोता करने में ऋषि विश्वामित्र और ऋषि वशिष्ठ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीसम्भवत:लाहौल का इलाका वैदिक काल में इन्हीं दस्यु लोगों के अधिपत्य का इलाका होगा जिस में बाद में आर्य भी आकर बस गये

               लाहौल का सर्वप्रथम ऐतिहासिक वर्णन चीनी यात्री ह्युनसांग की पुस्तक में मिलता है,जो की ई.629 से 645 के मध्यस्थ भारत में पधारा थाउस के अनुसार उतरी भारत में कीउलटो के नजदीक एक लाहुलो नामक इलाका बसा है किन्तु ह्युनसांग के अनुसार यह क्षेत्र कीउलटो से 1800 से 1900 ली (चीन की दूरी के अनुसार 360 या 380 मील) दूर है जो कि सत्य महसूस नहीं होता क्योँ कि वर्तमान समय में कुल्लू कस्बे से लाहौल के पहले गाँव कोकसर की दूरी मात्र 100 किलोमीटर के करीब हैपरन्तु ह्युनसांग द्वारा दी गयी विवरणी ऐतिहासिक तौर पर महत्वपूर्ण है
    
               कुछ प्राचीन बोद्ध धर्म के ग्रंथों जैसे कि "पदम थान्गीयांग"और "मम-कम्बम "में भी लदाख और जंसकर के दक्षिण में खस और हश् नामक देशों  का वर्णन है और भोतिक स्थिति के अनुसार यह इलाका लाहौल-स्पीति का ही हैविद्वानों के अनुसार लाहौल के लिए तिब्बतियों द्वारा प्रयुक्त शब्द "गरजा"शायद खस और हश् शब्दों से बिगड़ कर निकला होइतिहासकारों के अनुसार  सम्भवत: छठीं शताब्दी ईसा पूर्व से ले कर पांचवी शताब्दी तक मध्य एशिया में रहने वाले शक और कबीलों को हूँण लड़ाकों ने खदेड़ दिया और वे कई पहाडियां पार कर के भारत में प्रवेश कर गये और मध्य हिमालय के मध्यस्थ गड़वाल और लदाख के इलाकों में हमेशा के लिए बस गयेइस बात का साक्ष्य इन घाटियों में पायी गयी कई कब्रों से पता चलता है.कुछ विद्वानों ने केलंग के समीप शख्स नाले के नाम को भी इस कथन से जोड़ा है

लाहौली समुदाय और स्थानीय नस्ल 
            
                लाहौल घाटी में बसे लोग वास्तव में मिश्रित प्रजाति के हैंकुछ अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार लगभग 200 ई.पूर्व यहाँ मुंडा नामक खानाबदोश जाती के लोग् आके बसे, और इन का सम्बन्ध वर्तमान समय में मध्य भारत और बंगाल प्रान्त के इलाके में मुंडा बोली बोलने वालों खानाबदोश समुदाय से हैइन इतिहासकारों के अनुसार कुछ मुंडा आदिवासियों ने सम्भवता चरवाहकों,व्यापारियों और आक्रमणकारी लड़ाकों के रूप में उतरी भारत व् नेपाल के दुर्गम रास्तों से उतर के देशों के तरफ कूच किया और वहाँ बसने के पश्चात मंगोल जातियों के बोली के कुछ अंश अपनी बोली में ग्रहण कर लिया और बाद में इधर-उधर से पलायन कर के लाहौली इलाके में बस गये
   
            सम्भवत:इसी मुंडा नस्ल के कुछ लोग पलायन करते हुए कुल्लू सियासत में आने वाले रुपी वजीरी क्षेत्र के कनावर कोठी के अंतर्गत आने वाले दूरस्थ एव दुर्गम गाँव मलाणा व् कुछ सतलुज नदी से लगते बुशेहर जा बसे

                   किन्तु वर्तमान समय में बुद्धिजीवी उपरोक्त कथन से सहमत नहीं हैं ,क्यूंकि इस सन्‍दर्भ में कोई भी प्रमाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं और ना ही किसी ने मुंडा आदिवासियों और लाहौलियों की बोली में मिलान होने पर किसी ने कोई शोध कार्य किया हैअत:तथ्यों के न होने की स्थिति में इस मत में विरोधाभास नजर आना स्वाभाविक है
लाहौली समुदाय की औरते


         वास्तव में लाहौली समुदाय के कुछ लोग इन्डो-आर्य के तथा कुछ तिब्तियन नस्ल के हैंबुद्धिजीवियों के अनुसार पुर्वौतर काल में दक्षिण और पश्चिम से आर्य नस्ल के लोग भी पलायन कर के आये और यहाँ स्थायी तौर पर बस गये
    
     तत्पश्चात:पश्चमी तिब्बत से भी लदाख एवम रुपशु होते हुए कुछ तिब्बती नस्ल के लोग यहाँ  पलायन कर वर्तमान भागा नदी की घाटी के दारचा से सतींगरी तक के इलाके जिसे तोद कहते हैं,में बस गये.इसी नस्‍ल के कुछ लोग बाद में कई दुर्गम रास्तों से होते हुए चन्द्र घाटी के रंगलोई इलाके में वर्तमान कोकसर में भी बस गये
     
                चन्द्र नदी की तिनान घाटी में कुछ चम्बा से व् कुछ लाहौल और काँगड़ा के उपरी बड़ा भंगाल क्षेत्र से लगते असख जोत जिस (ऊँचाई 5080 मीटर)से होते हुए यहाँ हमेशा के लिए बस गयेअत:इस इलाके में बसे कुछ लोग अपने वंश को मध्यकालीन राजपूतों से सम्बन्धित बताते हैं जो कि काँगड़ा और अन्य छोटे पहाड़ी राज्यों में रहते थे.कुछ ऐसे ही परिवार तोद घाटी में भी हैं जो अपने वंशज राजपूतों को मानते हैं

आर्य एवं ब्राह्मण
              
              कुछ बुद्धिजीवियों के अनुसार लाहौल की मुख्य घाटी चन्द्रभागा में आदि काल में आर्य वर्ण के लोग रहते थे या पूर्वोतर काल में इस समुदाय के लोग सम्भवत:पश्चिम एवं दक्षिण दीशा से पलायन कर के यहाँ बस गये
            
              इस कथन के पीछे कुछ तर्क भी हैं,जैसे कि प्राचीन हिंदू सभ्यता के देवी-देवताओं का पूजन,धार्मिक अनुष्ठानों को मनाने के तौर-तरीके इत्यादि आर्य समुदाय के लोगों से मिलते हैंआर्य लोगों की भाषा संस्कृत थी और इसी के अंश लाहौल में बसे कुछ समुदाय के लोगों में भी मिलता हैसाथ ही शारीरिक डील-डौल जैसे कि चौड़ा माथा,ऊँची नाक,लंबी कद काठी इत्यादि भी आर्य वर्ण से गूढ़ सम्बन्ध होने के तथ्य को उजागर करती है


         वर्तमान समय में लाहौल के "चाण"समुदाय के लोगों में इस तरह की विशेष्‍ाताऐं देखने को मिलते हैं जिन्हें लाहौल की प्रचलित वर्ण व्यवस्था में थोड़े निम्न स्तर में देखा जाता है या शायद पूर्वोतर समय में समाज की दैनिक गतिविधियों में निम्न स्तर के कर्तव्यों के निष्पादन कार्यों के कारण निम्न वर्ण मिला।यह सामाजिक परिवर्तन रातों-रात तो नहीं किन्‍तु धार्मिक प्रभावों के चलते कई सदियों में हुआ होगा.वर्तमान समय में इस समुदाय के लोगों को भारत के संविधान के अनुसार अनुसूचित जाति के वर्ग में रखा गया हैखैर लाहौल से सम्बन्धित इस जाति के आर्य वर्ण के साथ सम्‍बन्‍ध होने के  तथ्यों को प्रमाणित करने के लिए अभी और विश्लेष्ण की आवश्यकता है
  
                लाहौल ही के पट्टन घाटी के नीचे वाले इलाकों के अधिकतर गांवों में ब्राह्मण गोत से सम्‍बन्‍ध रखते हैं और अपने नाम के साथ "शर्मा"का कुलनाम लगाते हैंसम्भवत:भारत के अन्य इलाकों में गुजर-बसर करने वाले ब्राह्मणों की भान्ति यह लोग भी पूर्वोतर काल से लाहौल में देवी-देवताओं के पुजारी की भूमिका निभाते थे या समाज के आवश्यक कार्यों के निपटारे में इनका विशेष स्थान था
  
               सम्भवत:आठवीं शताब्दी में लाहौल इलाके में बुद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के बाद उपरोक्त वर्णों की सामाजिक स्थिति का पतन हुआ और विशेषकर आर्य मूल के लोगों का अत्याधिक कर्मकांडों,बलि प्रथा एवं अंधी आस्थाओं की वजह से समाज में स्वाभाविक तौर पर पतन हुआइतिहास में जब भी किसी इलाके में नए धर्म का प्रभाव बढा तो अन्य धर्मों का पतन भी हुआ है और जो जातियां धर्म-परिवर्तन के लिए नहीं झुके,उन का सामाजिक स्तर भी गिरता गयासम्भवत: लाहौल इलाके में भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा

गाहरी एवं मयाडी
    
                         लाहौल  के भागा नदी की घाटी में सतींगरी गाँव के आस-पास के इलाके से ले कर बिलिंग तक तथा नदी के दूसरी और गवाज़ंग से प्युकर-लापचांग तक के इलाके में जिस नस्‍ल के लोग रहते हैं उन्हें "गाहरी" कहा जाता हैइस क्षेत्र के लोगों की अपनी विशिष्ठ बोली,रीति-रिवाज़ एवं विवाह इत्यादि की परम्पराएँ बिल्कुल नितांत एवं भिन्न हैं


           इन के पूर्वज सम्भवत:तिब्बत के उत्तर-पश्चिम के इलाके बलितिस्तान,बलुचिस्‍तान या हुम्‍जा से पलायन कर के यहाँ बस गयेयह क्षेत्र पूर्वोतर काल से मुस्लिम बाहुल्य इलाका है और शायद लाहौल के गाहरी भी पहले मुस्लिम धर्म के अनुयायी थे।गाहर घाटी से ही सम्‍बन्‍ध रखने वाले प्रख्‍यात विद्वान श्री छेरिंग दोरजे ऊर्फ भोटी मास्‍टर भी गाहरियों को पूर्व में बलूचिस्‍तान से पलायन कर इस इलाके में बसने के कथन का सर्मथन करते हैं.
        यह लोग मुस्लिम लोगों की भान्ति नमस्कार करने के लिए "सिजदा"(सर झुका कर हाथों से सलाम करना)करते थे.वर्तमान समय में इस घाटी के लोग पूर्णतय:बुद्ध धर्म के गहन अनुयायी है
   
                 लाहौल के उदयपुर कस्बे से उतर पूर्व की घाटी जो (इस घाटी का आबादी वाला अंतिम गाँव खंजर है )को मयाड वैली कहते हैं और इसी नाम से एक नाला जो कि चनाव से संगम स्थल पर पहुंचते विशाल नदी को रूप लेता हैयहाँ के लोग भी मिश्रित नस्ल के हैं और इन की बोली में भोटी भाषा का समागम है जिस में कुछ स्पीति और तोद  तथा  ऊपरी किन्नौर में बोली जाने वाली बोलियों का मिश्रण हैशायद पूर्वोतर काल में इस इलाके के लोगों के पूर्वज जस्कर से पलायन कर के आये हों और लाहौल के स्थानीय लोगों से सम्बन्ध बना कर यहाँ बस गयेइस घाटी में थान पट्टन नामक खुली घाटी से कांगला ग्लेशियर तथा अन्य कई दर्रों से जंस्कर के लिए नजदीकी रास्ता है
     
             अंतत:यह कह सकते हैं कि आज लाहौल के लोग मुख्यता उपरोक्त वर्णित सभी विभिन्न नस्लों की सन्तान हैंप्रसिद्ध बुद्धिजीवी और स्टेट्समैंन अखबार के भूतपूर्व सम्पादक प्राण लाल मेहता के अनुसार "लाहौलवासी अतीत में आये आक्रमणकारियों की सन्तान जान पड़ते हैं",यह वक्तव्य सब से सशक्त जान पड़ता हैं

लाहौल  की मुख्य बोलियां
                                                                                     लाहौल में मुख्यता छ:बोलियां बुनान(गार),तिनान(रंगलोई),जोद,गार,लोहार(शिप्पी ,छांनह) एवं मनछ्द(स्वन्गला)बोली जातीं हैंगारी बोली बिल्कुल विशिष्ठ है और यह बिलिंग से सतींगरी वाले क्षेत्र में बोली जाती हैमूलिंग गाँव से ले कर उदैयपुर तक पट्टन घाटी में मनछद बोली जाती हैकिन्तु पट्टन की घटती घाटी यानी जाहलमा गाँव से आगे उदयपुर तक तथा ब्राहमण जाति के लोग इसी भाषा  के थोड़े  बिगड़े रूप में शब्दों का उच्चारण करते हैं


        तिनान  वैली की मुख्य बोली रंगलोई है जो कि तैलिंग गाँव से दालंग गाँव तक बोली जाती हैइस में कुछ  मनछद तथा कुछ गारी बोली का मिश्रण हैजोद बोली मुख्यत:तोद वैली में तथा कोकसर गाँव में बोली जाति हैइस बोली में लदाखी बोली और तिब्बती भाषा के अंश बहुतायात में हैंयही बोली कुछ अन्य बदले रूप में मयाड घाटी में भी बोली जाती हैसरकार द्वारा घोषित लाहौल के अनुसूचित जाति के लोग जैसे कि लोहार इत्यादि शिप्पी तथा छानह बोली बोलते हैं

प्राचीन इतिहास

                 प्राचीन ऐतिहासिक पुस्तक ऋग्वेद जिसे 1500 ईसा पूर्व लिखा गया था,में वर्तमान लाहौल में बहने वाली नदी चनाव का वर्णन है इसे अस्किनी,इस्कामती या चन्द्रभागा के नाम से जाना जाता था.मध्यकाल में मुस्लिम कौम ने हिन्दुस्तान में फतह हासिल कर इस का नाम उर्दू  भाषा के शब्द  से चनाव रख दिया यानी ऐसी नदी जिस का स्त्रोत कहीं चीन में गलती से समझा गया और चीन के आब(नदी)होने की वजह से हमेशा के लिए चनाव हो गया.प्राचीन शास्त्रों और पुस्तकों के अनुसार इस नदी के किन्नारे एवं आस-पास के क्षेत्र में कई आदिवासी जातियां वास करतीं थीं.
  
                  चनाव नदी तांदी नामक जगह पर दो नदियों चन्द्र और भागा के संगम के बाद अपना पूर्ण आकार लेती है.कहते हैं कि पुराणों में भी इन दो नदियों का नाम आता है .जब राजा भागीरथ ने कैलाश से गंगा को उतारा था और उस से पहले उस ने चन्द्र और भागा नदियों के किन्नारे तपस्या की थी.कहते हैं कि सूर्य वंश से सम्बन्ध रखने वाले और भगवान राम के पूर्वज राजा भागीरथ के दादा जो कोशल में राज करते थे ,राजा सागर ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया.उस के 60,000 पुत्र या  प्रजा  थे.इस महायज्ञ से पहले छोड़ा हुआ घोड़ा गुम हुआ तो इन पुत्रों को उस की तलाश के लिए भेजा गया.इन्हें यह कहीं कपिल मुनि के आश्रम में मिला.राजा सागर के पुत्रों ने कपिल ऋषि को घोड़ा चुराने और यज्ञ में विघ्न डालने का इल्ज़ाम दिया.क्रोधित हो कर ऋषि ने उन सब को पत्थर और राख में बदल दिया.तत्पश्चात ब्रह्मा ने बताया कि यदि स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पे उतारा जाए और उस के जल से उन राख में परिवर्तित पुत्रों को धोया जाए तो तभी उन की आत्माएं स्वर्ग हासिल कर सकती हैं.
     
                   कई सदियों के बाद राजा भागीरथ ने हिमालय में जाकर घोर तपस्या की.ब्रह्मा और शिव की उपासना के पश्चात वह सफल हुआ और स्वर्ग या कैलाश पर्वत से गंगा नदी के रूप में पृथ्वी पे उतर आई.कहते हैं कि भागीरथ ने लाहौल की दो पवित्र नदियों चन्द्र और भागा के आस-पास भी घोर तपस्या की थी.कुछ विद्वानों के कथानुसार स्‍वंय राजा भागीरथ एक इन्‍जीनियर थे और शायद उपरोक्‍त कथा उन के द्वारा उतर प्रदेश के क्षेत्र में हिमालय की नदियों को नहर बना कर समस्‍त इलाके को खुशहाल करने का रहा हो.शायद इसी प्रयत्‍न में वह लाहौल आ कर चन्‍द्र और भागा नदियों का सर्वेक्षण भी कर गए हों.
        
                   इतिहासकार एस.सी.बाजपाई के अनुसार शायद समय के साथ मदरा नामक खानाबदोश जाति का शब्द जो यहाँ वास करती थी.का अपभ्रंश मुण्डा बन गया हो जो बाद में लाहौल के इलाके में रहने लगे.उन के अनुसार यह मुण्डा वर्तमान समय के झारखंड,पश्चिमी बंगाल,छतीसगढ़,उड़ीसा तथा असम में रहने वाले आदिवासी ही हैं.किन्तु वर्तमान समय में लाहौल के बुद्धिजीवी इस व्याख्या से बिल्कुल सहमत नहीं है क्योंकि मुण्डा लोग जाति-प्रथा से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं जबकि लाहौल में पूर्वोत्तर काल से जाति-प्रथा प्रणाली होने के सबूत हैं और जमींदारों,ब्राह्मणों और शूद्रों के यहाँ वास होने का साक्ष्य भी उपलब्ध है.साथ ही मुण्डा लोगों के पूर्वज अपने पूर्वजों को दफनाते थे जबकि लाहौल में मृत व्यक्ति का दाहसंस्कार अग्नि आहुति से होता है.
   
                     किवदंतियों के अनुसार महाभारत काल में पांडव अपने चौदह साल के बनवास के समय और मृत्यु से पूर्व लाहौल के इलाकों में रहे थे और कहा जाता है कि इसी इलाकों की हिमाच्छादित  पहाड़ियों  में अपने भोतिक शरीर को त्यागा था.इस तथ्य का समर्थन इस बात से होता है कि इन भरत वंशियों से सम्बन्धित कई स्थल जैसे कि उदयपुर के नजदीक का पांडव बाग व् भीम बाग यहाँ हैं और स्थानीय जनता इन्हें महाभारत कथा से जोड़ती हैं.इन मौलिक तथ्यों को पड़ोसी कुल्लू जिला में मनाली कस्बे के नजदीक अर्जुन गुफा तथा ढुंगरी के मशहूर हिडिम्बा माता के मन्दिर से जोड़ा जा जा सकता है जहां पांडवो ने समय गुज़ारा था.कहा जाता है कि पांच पांडवों की धर्मपत्नी द्रोपदी ने अपना देह चन्द्र और भागा के संगम स्थल तांदी में त्यागा था यानी 'तन'(शरीर) और देही(त्यागना).इसी वजह से तांदी इस स्थल का नाम पड़ा.

चन्द्र और भागा नदियों का संगम स्थल "तांदी"
                                                              
              कुछ अन्य जनश्रुतियों के अनुसार पांडव योद्धा भीम की पत्नी हिडिम्बा का भाई टुंडी राक्षस लाहौल के इलाके में रहता था और उसी के नाम से तांदी का नाम पड़ा.इस तरह की बातों का कोई प्रमाण यदि उपलब्ध ना भी हो तो यह अवश्य कहा जा सकता है कि यहाँ पांडव रह कर गये थे.
          
                  लाहौल के तिनन घाटी के गूंधला में विशाल पत्थरों से बनीं मानव आकृतियाँ हैं,जिन्हें "नौ गजः माणु"के नाम से जाना जाता है और शायद यह प्राचीन पांडव काल के मानवों के आकार को अभिव्यक्त करतीं हैं क्यूंकि बुजुर्गों के कथन अनुसार महाभारत काल के मानव बहुत बड़े डील-डौल के थे.साथ ही पट्टन घाटी के किसी गाँव में एक पारिवार के पास पांडव काल का गंदम का दाना अभी भी सुरक्षित है और कहा जाता है कि यह अपने बड़े आकार की वजह से आज के मानव के पूरे मुट्ठी में बड़ी मुश्किल से आता है.
   
                छटवीं सदी ई.पूर्व उत्तर भारत का इलाका सोलह जनपदों में विभक्त था और इन जनपदों के आस-पास कई छोटे आदिवासी गणराज्य थे.प्राचीन भारत के गणितज्ञ एवं व्याकरणविद पाणिनी ने  अपने सूत्र में इन जनपदों का वर्णन किया है.  पाणिनी के अनुसार गंधार राज्य के उत्तर-पश्चिम में कई छोटे-छोटे स्वतंत्र गणराज्य जैसे कि त्रिगोतर जिस में कुल्लू,मदामती,क्लाकाता और कुमाऊं थे.क्लाकाता का इलाका एक विशाल परिसीमा में था जिस में ब्यास,चनाव,सतलुज,यमुना और कुछ गंगा नदियों का इलाका आता था.चनाव नदी वाला इलाका यकीनन लाहौल भी इसी गणराज्य के अधीन रहा होगा.

मध्यकालीन इतिहास 
यारकंदी तुर्क 
    
                    कुछ इतिहासकारों के अनुसार मध्यकाल में यारकंद या उसी दिशा के कुछ विदेशी खानाबदोश लड़ाकुओं ने लाहौल और इस के पश्चिम के साथ लगते कई इलाकों पर आक्रमण किया और करीबन दो दशक अपने अधीन रखा.अंग्रेज इतिहासकार हर्कूट के अनुसार यह आक्रमण शायद मध्य एशिया के तातार सरदार चंगेज खान के समय किया गया था परन्तु इतिहासविद हचिसन और वोगल इस बात का खंडन करते हैं और उन के अनुसार यह आक्रमण उस से भी पहले हुआ था.
   
                     इन दोनों के अनुसार इस यारकंदी आक्रमण का विवरण चीनी यात्री सुनयून की यात्रा विवरणी में मिलता है और इसे तुर्क सरदार यिथा ने या ई. में अंजाम दिया था.उस ने पहले कंधार यानी वर्तमान अफगानिस्तान पे आक्रमण किया,फिर साथ के इलाकों को भी कब्जा करते हुए दक्षिण में तिरहट तक आक्रमण किया.ऐसा ही चम्बा के जनश्रुतियों के अनुसार यारकन्दी नस्ल के लोगों ने चम्बा की राजधानी ब्रह्मपुर या भरमौर में आक्रमण किया था.कहा जाता है कि बाद में कुल्लू और सुकेत की सयुंक्त सैना ने उन्हें यहाँ से खदेड़ भेजा.यह घटना शायद 780 या 800 ई.के मध्य हुई होगी

लदाखी अधिपत्य 

                      लाहौल का सम्बन्ध कई सदियों से पड़ोसी राज्य लदाख से रहा और यह सम्बन्ध सिर्फ प्रशासनिक ही नहीं बल्कि वाणिज्य तौर पे भी था.मध्यकालीन युग के सामंतों की भान्ति लाहौल में भी पड़ौसी राज्यों द्वारा नियुक्त कुछ जागीरदार थे और लाहौल के स्थानीय किसानों से वार्षिक कर एकत्रित कर के अपने राजाओं को पहुचाते थे.लदाखी अधिपत्य के समय यहाँ के कुछ इलाकों के मुखिया या जागीरदार तिबति प्रणाली के "ज़ो" थे.लदाखी राजाओं ने लाहौल के कोलोंग,बारबोग,गुमरांग और गूंधला में कुछ जाने-माने परिवारों को जागीरदार नियुक्त किया हुआ था.
             
           इन सामंतों से मिलते-जुलते कुछ शासक पट्टन घाटी के घुशाल,लोट और रेबाग में भी रहते थे और इन का सम्बन्ध चम्बा राज्य के साथ था.मध्यकालीन भारत के मूल सामंतों की तरह लाहौल के इन स्थानीय जागीरदारों की भी आपस में नहीं बनती थी और आपसी रंजिश,मनमुटाव एक आम पहलु था.गाहर घाटी के बरबोग के ज़ो की गुशाल के राणाओं से आपसी अंन-बन और झड़प कई सदियों तक रही.वर्तमान समय में भी किसी विशेष त्यौहार में बरबोग गाँव के लोग प्रतिकात्मक तौर पर घुशल की दिशा की और गालियाँ बकते हैं ,जो उन की पुरानी रंजिश को  दर्शाता है.
         
                  साथ ही मध्यकालीन युग से लाहौल समय-समय पर चम्बा एवं कुल्लू राज्यों के अधीन रहा.उत्तर दिशा के दुर्गम दर्रों से लदाखियों ने तथा रोहतांग दर्रे से कुल्लू ने व् कुगती जोत से चम्बा राज्य के सैनिकों ने मध्यकालीन युग में कई बार आक्रमण कर के लाहौल को अपने अधिपत्य में रखा.लगभग 600 ई.में चम्बा ने कुल्लू राज्य के अधिपत्य से लाहौल को छिना और इस का प्रमाणित उल्लेख कुल्लू के राजघराने के पारम्परिक लेखों में मिलता है.कहते हैं कि चम्बा और कुल्लू के सैनिकों के बीच रोहतांग जोत पर युद्ध हुआ जिस में कई मारे गए और रोहतांग दर्रे के कई स्थलों पे बिखरी पड़ी हड्डियां उन्हीं मृत सैनिकों की हैं. 
   
                    चम्बा के अधिपत्य के समय उपरी रावी नदी के साथ बसा हुआ भरमौर कस्बा ही चम्बा के रजा की राजधानी थी.तीनों राज्यों लदाख.कुल्लू और चम्बा ने अपने-अपने शासन में लाहौल को कर उगाही के लिए कुछ स्थानीय सामंतों को जागीर बाँट रखी थी.चम्बा ने इस का उतरदायित्व त्रिलोकीनाथ के राणा को दे रखा था.  

ल्हासा का राजा लंगदरमा और उस के पुत्र

                नवीं सदी के उतराध्र वर्ष 899 में ल्हासा का राजा लंगदरमा बना.वह एक सख्त और क्रूर शासक था और मध्य एशिया में फ़ैल रहे बुद्ध धर्म और अनुयायियों से बेहद घृणा करता था.इस शासक ने बुद्ध धर्म के दमन के लिए बोद्ध भिक्षुओं पर घोर अत्याचार किये.बुद्ध धर्म को मानने वाले तांत्रिक मत के अनुयायियों ने अति तंग आकर लंगदरमा को मारने की योजना बनाई और "छम नृत्य"(एक प्रकार का मुखोटा नृत्य)द्वारा एक बोद्ध भिक्षु लामा पलगी दोरजे ने उस राजा को मार गिराया.लंगदरमा का युग पश्चिमी तिब्बत के बोद्ध अनुयायिओं के लिए एक काला समय था.उस समय पूरे दक्षिणी चीन में बोन धर्म का अत्यधिक प्रभाव था. 

                दसवीं शताब्दी के शुरूआती दशकों में लदाख में लंगदरमा के पड़पोते स्किल्दे नाम्ग्योंन(900-930) का प्रभुत्व कायम हुआ किन्तु उसे बाद में मध्य तिब्बत के अपने ही शक्तिशाली सरदारों के विद्रोह के कारण वहाँ से भागना पड़ा और पश्चिमी तिब्बत के नगरिस इलाके में अपना अधिपत्य कायम करना पड़ा.नाम्ग्योंन के तिन पुत्र थे,जिन्हें उस ने अपना पश्चिमी तिब्बती साम्राज्य बराबर हिस्सों में बाँटना पड़ा.किन्तु तिब्बती परम्परा के अनुसार बड़े पुत्रों की अपेक्षा छोटे पुत्रों की अहमियत बिल्कुल नगण्य थी.


            न्याम्गोंन ने सब से बड़े पुत्र लाचेन पाल गियोगोंन को कश्मीर के उत्तर में जोजिला दर्रे से रुतोग का इलाका जिस में मुख्य लदाख भी था,दूसरे पुत्र टशीगोंन को उपरी सतलुज से लगता इलाका घुघे से पुरांग तक तथा सबसे छोटे पुत्र लदेलोंगोंन को जंसकर,स्पीति और स्पिचोग नामक दक्षिणी इलाका अधिकार स्वरूप दिया.इतिहासविद फ्रैंक के अनुसार सबसे छोटे पुत्र को दिए गये इलाके में सम्भवत:लाहौल भी शामिल था.इस तरह जब भी लदाख का प्रभुत्व लाहौल पे कायम रहा तो उन्होंने अपने प्रशासन तन्त्र को इस इलाके में कायम रखने के लिए कुछ सामंत रखे जो कि उपरोक्त वर्णित "ज़ो"थे.
    
               लदाखी राजाओं ने अपनी सामरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए और मध्य एशिया के कई देशों से  अपने व्यापारिक सम्बन्ध के महत्व को देखते हुए अपनी सैन्य शक्ति के बल पर अपनी परिसीमा  वाले क्षेत्र यानी लाहौल के दक्षिण में आने वाले हिंदू राज्यों पर भी आक्रमण किया.लगभग दसवी सदी के अंत में लदाख के शासक लाचेन उत्पाल(1080-1110) ने कुल्लू पर आक्रमण किया किन्तु दोनों देशों के राजाओं के मध्य शांति हेतु संधि हुई.यह संधि वाणिज्य बिंदु पर बहुत महत्वपूर्ण थी.लाचेन ने कुल्लू के अपने समकालीन राजा सिकन्दर पाल को अनाज और लोहा इत्यादि के बदले लदाख से सटे सीमा से व्यापार करने की छुट दी और कठिन इलाकों में सामान उठाने के लिए मशहूर बहुमूल्य जानवर याक,उन,पश्मीना इत्यादि कुल्लू को देने की पेशकश की.कहते हैं कि यह व्यापारिक संधि दोनों देशों के बीच सत्रवी सदी तक कायम रही.

                   किन्तु वर्तमान लाहौल का जो इलाका है वह सम्पूर्ण तौर पर लदाख के अधिपत्य में नहीं रहा.लदाख से पहले यह ज्यादातर कुल्लू और चम्बा के अधीनस्थ रहा.यह कह सकते हैं कि दसवीं और ग्यारहवीं सदी में लदाखी प्रभुत्व बहुत ज्यादा था न कि उस से पूर्व.यह साम्राज्य लगभग सोलहवीं सदी तक कायम रहा किन्तु बीच-बीच में छुट-पुट आक्रमण करते रहे,यह अधिकतर व्यापार से सम्बन्धित झगडों और कर व्यवस्था के लिए ही होते थे.सोलहवीं सदी के मध्यस्थ में भी लदाख के राजा छेवांग नामग्याल ने कुल्लू के समकालीन राजा सिद्ध सिंह(1532-60)के साथ युद्ध किया था और कुल्लू के उपरी इलाकों तक अपना कब्जा कायम कर दिया था.कहते हैं इस घटना का विवरण लाहौल के तोद घाटी के कोलोंग के जागीरदारों के पास पड़े पुराने लिखित पांडुलिपियों में मिलता है.
    
                 इतिहासकार एवं घुमक्कड़ कप्तान हार्कुट की पुस्तक "कुल्लू,लाहौल व् स्पीति(1871)के अनुसार लाहौल का इलाका भी एक समय किन्नौर के उपरी सतलुज के साथ लगते राज्य घुगे के अधीन था ,परन्तु अन्य अंग्रेज इतिहासकार इस तथ्य से सहमत नहीं थे और उन के अनुसार घुगे के अधीन स्पीति था न कि लाहौल का इलाका.सोहलवी सदी में में लदाख के शासक सेंगे नामग्याल(1575-1635) ने जब घुगे पर आक्रमण किया था तो उस ने अपने सबसे छोटे पुत्र को अधिकार स्वरूप स्पीति से ले कर जंसकर तक का इलाका दिया था न कि लाहौल.इस लदाखी राजा से सम्बन्धित पुरातत्व लेख स्पीति में भी मिले हैं.इस के अलावा मोरावियंन मिशनरी जीजस फादर एजेंडो जो सन में लेह से पंजाब के मैदानी इलाकों की सैर पर थे और वह जब लाहौली इलाके से गुज़रे थे तो उनके लिखित तथ्यों के अनुसार लाहौल जिसे उस समय गरजा कहते थे,पूर्णतय:कुल्लू के अधीन था.

कुल्लू का अधिपत्य 

                कुछ  प्रमाणिक ऐतिहासिक तथ्यों से जाहिर होता है कि कुल्लू के शासक बहादुर सिंह(1532-1559) के काल में लाहौल का उपरी इलाका और विशेषकर तिनन घाटी काफी अरसे तक कुल्लू के अधीन रहा.उस के बाद के तिन अन्य कुल्लुई शासकों प्रताप सिंह(1559-1575),प्रभात सिंह (1575-1608) एवं पृथी सिंह (1608-1635)के नाम लाहौल के वजीरों के पुराने महत्वपूर्ण लेखों और अनुदेश पत्रों में मिलता है.राजा प्रताप सिंह के समय गाहर घाटी के बारबोग के ज़ो टशी ग्यास्पो लाहौल के मुख्य जागीरदार नियुक्त किये गये थे. 


                 उपरोक्त वर्णित अंतिम राजा पृथी सिंह के उतराधिकारियों के बारे में लाहौल में कहीं भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है,इस का अभिप्राय यह है कि 1635 से अगले 35 वर्षों तक या उस भी अधिक समय तक लाहौल में कुल्लू का वर्चस्व लगभग समाप्त हो गया था.शायद इस बीच लदाख के शासक देल्दंन नमग्याल जिस ने 1645 तक राज़ किया और हो सकता कि उस ने अपनी शक्ति से लाहौल को भी उस समय अपने सामराज्य में मिला लिया हो.लाहौल में यह लदाखी अधिपत्य शायद एक अन्य राजा गाल्दंन नामग्याल के समय तक या मध्य एशिया के मंगोलों के आक्रमण तक रहा हो.कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तथ्य कोलोंग के ठाकुरों के पास पड़े महत्वपूर्ण पुरातन लेखों में मिलता है.इस बात से यह पता चलता है कि लाहौल स्तारवीं सदी के अंत में पूर्णतय:लदाख के अधिपत्य में था.

मंगोलों का आक्रमण 
  
            स्तारवीं सदी के मध्यकाल में पूर्वी मंगोलिया और मंचुरिया के खानाबदोश कबायिलों मंगोलों ने लदाख पर आक्रमण किया.इस से पहले भी वे 1221 से 1350 तक कई बार भारतीय उपमहाद्वीप पर मुगल काल में आक्रमण कर चुके थे.जब मंगोलों ने सतारवीं सदी में लदाख पर आक्रमण किया तो उस समय वहाँ का शासक देलगैस नामग्याल (1645-1680)था और उस ने मंगोलों के आक्रमण के विरुद्ध कुछ तैयारी की थी.इस का सम्पूर्ण विवरण अन्तराष्ट्रीय तिब्बती अध्यन्न संस्थान की पुस्तक "The Mongolia-Tibet interface opening new research terrain in (Vol.2003)"में मिलता है.लदाखी शासक ने अपने प्रधान मंत्री जनरल सख्यारग्य मशो के नेतृत्व में मंगोलों के आक्रमण से निबटने के लिए कुछ कश्मीरी और बलितिस्तान के लड़ाकों के सैना का गठन किया.मंगोलों का यह आक्रमण गलदेंन टशी दबांग ने किया था और उस की सैना में मंगोल और तिब्बती दोनों थे.
    
                लदाखी और मंगोलों सैना के बीच कई युद्ध हुए और तिब्बत के मिंगरिस में लदाखियों को पराजित होना पड़ा.मंगोलों ने इंड्स घाटी में रुतोग की तरफ कूच किया.तत्पश्चात बास्गो में फिर एक युद्ध हुआ और वहाँ के किले को गालदेन टशी की सैना ने तीन साल तक कब्जा किये रखा.अपनी कमजोर स्तिथि को देखते हुए लदाखी राजा को मुगलों को सहयता के लिए लिखा.तुरन्त काश्मीर के मुगल गवर्नर इब्राहीम खान ने अपने जनरल फिदायी खान को भेजा और लदाखी और मुगलों की सयुक्त सैना ने बास्गो में मंगोलों को खदेड़ भेजा.इस समय मुगल बादशाह शाहजहां का वर्चस्व बल्क,कंधार और बादकशाँ तक था.  

             इस के बाद मंगोलों ने लदाख पर अपना अंतिम आक्रमण सन 1684 में किया.लाहौल-स्पीति और जसकर में गालदेंन टशी के सेंगपो(मंगोलों)के आक्रमण के रूप में याड किया जाता है.कहते हैं कि इस आक्रमण में मंगोलों और तिब्बतियों की सयुंक्त सैना ने स्पीति के मशहूर मठों तांगयुद् और लाहलांग को आग लगा के तहस-नहस कर दिया था.


              कहा जाता है कि मंगोलों की एक सैनिक टुकड़ी लाहौली इलाके में भी पहुंची थी और उन्होंने कोलोंग के किले पर भी आक्रमण किया था.तत्पश्चात:उन्होंने भागा नदी को पार कर कुल्लू की और भी मुड़े किन्तु गूंधला के पास बर्फीली तूफ़ान और ग्लेशियर में मारे गये.कुछ बुद्धिजीवियों के अनुसार तिनन घाटी के रोहलांग थांग में मानवों की हड्डियां पायीं जातीं थीं ,जो शायद इन्हीं मृत मंगोल सैनिकों के थे.मंगोलों के आक्रमण के बाद लदाख की शक्ति छिन-भिन् हो गयी क्यूंकि उन्हें मुगलों को उन की सहायता पाने के बदले काफी कुछ खोना पड़ा और कई संधियों पर हस्ताक्षर करने पड़े.अत:एक बार फिर कुल्लू के शासकों को लदाख के इलाके लाहौल पर अधिपत्य जमाने का मौका मिल गया.

राजा बिद्धि सिंह और लाहौल पर आक्रमण 
  
                मंगोलों के वापिस जाने के बाद और लदाखी शक्ति ढीली होने के बाद कुल्लू के राजा बिद्धि सिंह (1672-1700)को लाहौल का इलाका अपने अधीन करने का मौका मिल गया.उस ने चम्बा वाले इलाके थिरोट से आगे तक कूच कर कब्जा कर लिया.फलस्वरूप उस ने दबाब डाल के चम्बा के शासक की पुत्री से विवाह कर लाहौल के पट्टन घाटी को बाद में दहेज स्वरूप प्राप्त कर लिया.
   
रेबाग मन्दिर में अवलोकतेश्‍वर की मुर्ति
      लाहौल की ऐतिहासिक परम्परा बतलाती है कि राजा बिद्धि सिंह लाहौल का शासक बनने के पश्चात यहाँ के मशहूर त्रिलोकीनाथ मन्दिर के संगमरमरी मूर्ति को कुल्लू ले जा कर वहाँ स्थापित करना चाहता था और इस के लिए उस ने लाहौल के स्थानीय जनता की आस्था की परवाह किये बगैर अपने सैनिकों को मूर्ति वहाँ से उठाने का आदेश दे दिया.कहते हैं कि यह अदभुत मूर्ति बिल्कुल उठाई ना जा सकी और सैनिकों को वह बहुत ही ज्यादा भारी लगने लगी.अत्याधिक गुस्साए कुछ मुर्ख सैनिकों ने तलवार से मूर्ति पर प्रहार किये.इस घटना में मूर्ति की एक ऊँगली कट गयी और वहाँ से रक्त धरा प्रवाहित हुई.यह सब देख कर राजा को पश्चताप हुआ और अपना इरादा त्यागना पड़ा.जनश्रुतियों के अनुसार इस मूर्ति के बायीं कटी ऊँगली और दायें जांघ पे प्रहार के निशान  कुल्लू राजा के सैनिकों के प्रहार स्वरूप हुआ.       
   
                     राजा बिधि सिंह के शासन का विरोध कुछ समय तक बरबोग के जागीरदारों ने किया क्यूंकि उनके लदाखी शासकों से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे.अत:परिस्तिथि को समझ कर कुल्लू के शासकों ने बाकि अन्य जागीरदारों से अपने सम्बन्ध गूढ़ कर लिए,जिस से बरबोग के ज़ो की प्रतिष्ठा को काफी नुक्सान पहुंचा.अब बारबोग को छोड़ कर बाकि अन्य सामंतों ने कुल्लू और अन्य निचले राज्यों के  पहाड़ी राजपूतों और राजघरानों से वैवाहिक सम्बन्ध बना लिए और अपने पूर्वजों की जड़ों को तर्कपूर्ण तथ्यों सहित कांगड़ा के पहाड़ी इलाके बड़ा भंगाल इत्यादि से जोड़ने लगे. 

राजा मान सिंह( 1688-1719)
                                                                                                                                                
              स्तारवीं सदी में कुल्लू के राजा मान सिंह ने लाहौल से भी आगे की और अपना सामराज्य बढ़ाने की कोशिश की और बारालाचा दर्रे तक कूच किया.उस ने लदाख और कुल्लू के मध्यस्थ लिंगती को सीमा निर्धारित कर लिया और उस इलाके में लदाख के वर्चस्व को बिल्कुल समाप्त कर दिया.राजा मान सिंह ने गूंधला में ऊँचे किले का निर्माण कराया और वहाँ के जगीरदारों से वैवाहिक सम्बन्ध बना लिए.कप्तान हरकूट के अनुसार गूंधला मत के लिपिबद्ध राजस्व अनुदेश में राजा मान सिंह का वर्णन मिलता है.

              कुल्लू का राजा मान सिंह बड़ा पराक्रमी और दूरदर्शी था.इस राजा का सम्बन्ध पट्टन घाटी के जाहलमाँ गाँव में बने "हिडिम्बा"देवी के मन्दिर से है.यह राक्षसी देवी कुल्लू के राजघराने की कुल देवी भी मानी जाती है.

               स्तारवीं सदी के उतरार्ध में किसी वर्ष अगस्त-सितम्बर में राजा मान सिंह  लाहौल के त्रिलोकीनाथ मन्दिर में दर्शन हेतु पधारा और वापसी में अपनी सैन्य टुकड़ी सहित जाहलमाँ गांव में डेरा डाला.अचानक मौसम अत्याधिक खराब होने से समस्त लाहौल इलाके में बे-मौसम बर्फबारी हुई और इधर-उधर जाने के सभी मार्ग बंद हो गये.
      
               मौसम के रुख के कारण इस विवशता में राजा ने अपने वजीरों और नम्बरदारों को आदेश दिया कि लाहौल घाटी के ज्योतिष विद्या का ज्ञान रखने वाले लामाओं और भाटों को बुलाया जाए और उन से राह खुलने का समाधान पुछा जा सके.राजा को अपनी राजधानी कुल्लू जाना अतिआवश्यक था क्यूंकि उस का दशहरे उत्सव में शामिल होना था और साथ ही राज कार्य निपटाने थे.कहते हैं कि लाहौल के भाटों तथा बुद्धिजीवियों ने अंतत:यह निष्कर्ष निकाला कि राजा अपनी इष्ट देवी हिडिम्बा का मन्दिर वहाँ तुरंत स्थापित करेंगे तो मार्ग खुलने की सम्भावना है.
जाहलमा में हिडिम्‍बा का मन्दिर
                  इस हिदायत का पालन करते हुए राजा ने वहाँ एक याक की बली के पश्चात जाहलमाँ  में मन्दिर की स्थापना की.कुल्लू के राजा दशहरा महोत्सव में भैंस की बलि देते हैं किन्तु लाहौल में यह जानवर उपलब्ध ना होने के कारण याक की बलि देनी पड़ी.कहते हैं कि इस धार्मिक अनुष्ठान के पश्चात मौसम साफ़ हो गया और तुरंत रोहतांग दर्रा खुल गया और राजा सकुशल अपनी सैना सहित वापिस अपनी राजधानी कुल्लू पहुंच गया.जाहलमाँ के इस मन्दिर में याक के बलि देने की प्रथा सन 1936 तक निरंतर चलती रही किन्तु बाद में बंद कर दिया गया और उस की जगह भेड़ों की बलि दी जाने लगी.
       
                राजा मान सिंह का समकालीन चम्बा का राजा उदयसिंह(1690-1720) था और उस के अधीन उदयपुर तक निचला लाहौल था.इस राजा ने माता मृकुला के नाम से मशहूर कस्बे मरगुल से बदल कर अपने नाम पर उदयपुर रख दिया.
     
               जैसा कि उपर पहले भी मैंने बताने की कोशिश की है कि सन 1670 तक लाहौल में लदाखी अधिपत्य लगभग समाप्त हो चुका था और कुल्लू और लदाखी राजाओं ने आपस में व्यापारिक संधि कर ली थी जिस के अनुसार कुल्लू के शासक ने लोह और लोह से बने पदार्थ लिंगती के मैदान के रास्ते लदाख को भेजने का वादा किया.इस के बदले में लदाख द्वारा वहाँ के खानों में उपलब्ध सल्फर,नमक इत्यादि कुल्लू भेजा जाता रहा.दोनों राज्यों के बीच यह संधि सिक्खों द्वारा कुल्लू और लाहौल पर आक्रमण तक रहा.
        
          मोरेवियन मिशनरियों द्वारा लिखे गए उर्दू के प्रलेखों में कुल्‍लू के राजा मान सिंह के बाद उसके उतराधिकारी राजा प्रीतम सिंह का भी उल्‍लेख मिलता है जिस के समय में लाहौल की एक सैन्‍य टुकडी जिसका नाम ''घेपांग ला'' था,ने मण्‍डी की सैना के विरूद्व युद्व में हिस्‍सा लिया था|


      सन 1822 में कुल्‍लू,लाहौल और बुशहेर की संयुक्‍त सैना ने जंसकर पर आक्रमण किया और वहां के शाही पदुम महल को काफी नुकसान पहुचाया था|     
              

बेगारी व्यवस्था   
                                                                                                                                    
                            लाहौल में कई सदियों तक कुल्लू राजाओं का प्रभुत्व रहा और यहाँ की जनता को राजा की सेवा के लिए हमेशा जाना पड़ता था .कुल्लू के शासक उन से मुफ्त में काम लेते थे ,जिसे "बेगारी व्यवस्था"कहा जाता है.कहते हैं कि उस समय कुल्लू कस्बे के अखाड़ा बाज़ार में एक बहुत बड़ा खाली मैदान हुआ करता था और लाहौल के बाशिंदों को वहाँ कोठियों के अनुसार डेरा डालने की जगह दी गयी थी.इन्हीं पृथक कोठियों की वजह से ही वर्तमान अखाड़ा बाज़ार के कई जगहों को अलग-अलग नाम से जाना जाता है.उदहारण के तौर पर रामशिला का इलाका लाहौल के गुमरांग कोठी को दिया गया था.


चौदह  कोठी 
    
             कुल्लू के शासकों ने अपनी प्रशासनिक सुविधा हेतु लाहौल को चौदह कोठियों में बाँट रखा था.यह कोठी एक तरह से कर इकठ्ठा करने हेतु बनाये गये छोटे परगने जैसे थे.हर कोठी का मुखिया एक लम्बरदार होता था  और उस की सहायता के लिए एक चौकीदार भी होता था .इन का काम कर इकठ्टा कर कुल्लू शासक के खजाने में जमा करना होता था .कर के हिसाब-किताब के लिए हर कोठी में एक पटवारी भी नियुक्त होता था .यह सभी अधिकारी राजा के नुमायदे होते थे और वेतन भोगी नहीं थे.हर वर्ष एकत्रित लगान वसूली का कुछ हिस्सा इन की मुख्य आय थी.
                                           
              लाहौल के चौदह कोठियां इस प्रकार थीं,कोकसर,सिस्सू,गूंधला,गुशाल,कोलोंग,गुमरांग,बारबोग,कारदंग,तांदी,वारपा,रानिका,शंशा,जोबरांग और जाहलमा. 
   
          गाहर घाटी में चार कोठी कारदांग,बारबोग,कोलोंग और गुमरांग थे ,पट्टन में छ:कोठियां तांदी,वारपा,रानिका,शंशा,जाहलमा और जोबरांग थे.तिनन में चार कोठी कोकसर,सिस्सू,गूंधला और गुशाल थे.

            वरपा इलाके में बारिंग तथा रानिका में लोट और शंशा गाँव के नाले के बीच का इलाका आता था.घुमक्कड़ एवं लेखक मूरक्राफ्ट के अनुसार लाहौल में कुल्लू हेतु कर संग्रह करने का कार्यालय तांदी में था जिसे कोठी भी कहते थे.यहाँ दो कर्मचारी हाकिम और कानूनगो के नाम से तैनात थे.इसी गोदाम या कोठी में अनाज को भी कर के रूप में एकत्रित किया जाता था.इसी हाकिम को कुल्लू वासी नेगी भी कहते थे.पट्टन घाटी के गोहरमाँ गाँव के बली राम लाहौल के पहले हाकिम थे.
      
             कुल्लू शासकों ने लाहौली ठाकुरों को वजीर की उपाधि दी थी और उन्हें समय-समय पर कुल्लू दरबार में उपस्थित भी होना पड़ता था .जब कप्तान हर्कुट सन 1820 में लाहौल घाटी से होता हुआ गुज़रा था तो उस के अनुसार चंद्रा या तिनन घाटी के चार गाँव उस समय लदाख को कर देते थे.ऐसा शायद कुल्लू के शासकों द्वारा सीमा में शांति बनाये रखने के लिए था.स्वयं हर्कुट सन 1869 से 1971 तक ब्रिटिश हुकुमत का नुमायदा होने के नाते कुल्लू का प्रभारी था और उस के अनुसार सन 1868 में लाहौल की जनसंख्या 6265 मात्र थी.  

तिब्बत  से व्यापार 

                तिब्बत से होता हुआ मशहूर सिल्क रूट चीन और एशिया के कई देशों को जोड़ता था.लाहौल का भी सदियों से तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध थे और इस के लिय वे  एक विशेष रास्ते से जानवरों और साजो-सामान सहित जाते थे,जिस में कई महीने लग जाते थे .यही रास्ता सिल्क रूट से भी जुड़ता था.
   
              यह व्यापार वस्तु-विनिमय प्रणाली पर आधारित था,जिसे अंग्रेजी में बार्टर इकोनोमी कहते हैं,यानी धन की बजाय एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान होता था.इन वस्तुओं में अनाज,चीनी,गुड,नमक चाय  पत्ती एवं कपड़े इत्यादि को व्यापारी घोड़ों,खच्चरों पे लाद के लाया जाता था .इन के बदले में ऊन,पश्चम और सूरा या चुरू गाय को विनिमय किया जाता था .लाहौली व्यापारियों की सम्पति भेड़-बकरियां थी.लाहौली लोग घी से भरे पिपों को पीठ पे लाद के उन्हें दूरस्थ इलाकों तक बेच आते थे.
   
               स्तारवीं एवं अठारवीं सदी में मुगल काल की प्रचलित ताम्बे-कांसे की मुद्राएं भी व्यापार में दी जाने लगीं क्यूंकि तिब्बत की सरकार को यह मुद्रा मान्य थी.तिब्बत के साथ लाहौल के न सिर्फ व्यापारिक सम्बन्ध थे बल्कि धार्मिक सम्बन्ध भी थे.इसी लिए लाहौल से भी कई घरानों से बच्चों को शिक्षा हासिल करने के लिए तिब्बत भेजा गया.उन्होंने ल्हासा,गेदेंन और टशी लुम्बुग जैसे मशहूर बुद्ध धर्म के मठों में उच्च शिक्षा और ज्ञान हासिल किया. 

दोआब पर अंग्रेजों का कब्जा 
   
                सन 1840-41 में सिखों की सैना ने महाराजा रंजीत  सिंह के तत्वधान में  कुल्लू पर अधिकार कर लिया ,फलस्वरूप लाहौल भी उन के अधिपत्य में आ गया किन्तु कुछ वर्षों बाद सन 1846 में समस्त दोआब का इलाका अंग्रेजों ने फतेह कर लिया और उन्होंने लाहौल तक अपनी हुकुमत कायम कर ली और अब यह सब इलाका ब्रिटिश सामराज्य का हिस्सा बन चुकी थी.इस के लिए अंग्रेजों ने सिखों को अमृतसर की संधि पर हस्ताक्षर करने को मजबूर किया जिस के अनुसार जम्मू के राजा गुलाब सिंह डोगरा को सिंधु नदी के इलाके से ले कर रावी नदी तक का इलाका जिस में चम्बा भी शामिल था,को मान लिया गया.किन्तु इस में लाहौल का इलाका नहीं था.  
  
              अंग्रेजी हुकुमत ने पहले कुल्लू को कांगड़ा के अधीन रखा और इसे सब-तहसील बनाए रखा और लाहौल को भी पुराने वजीरों के अधीन ही रखा.मुख्य वजीर को वैधानिक और कार्यपालिका की शक्तियाँ दी गयी थी और किसी अन्य को कर वसूली की शक्तियाँ दी.अंग्रेजी सरकार का सहायक आयुक्त जिस का कार्यालय भुंतर में था,वर्ष में एक बार लाहौल निरीक्षण के लिए जरूर जाता था.लाहौल का प्रथम अंग्रेज  सहायक आयुक्त कप्तान हेय (1853-57)था,जिस के पास कांगड़ा के स्थानीय लोगों की सैनिक टुकड़ी थी जिस की देख-रेख में वह लाहौल का प्रशासन चलाता  रहा.
      
           प्रारम्भ में स्थिति का जायजा लेते हुए अंग्रेजों ने प्रशासनिक शक्तियाँ तोद घाटी के  खांगसर ठाकुरों को दी किन्तु बाद में उन्होंने हर कोठी के लम्बरदार के उपर एक नायब तहसीलदार को भी नियुक्त किया.लाहौल के ठाकुरों की भान्ति स्पीति में यह शक्तियाँ क्युलिंग के नोनो को प्रदान की गयीं.इन के पास प्रशासन की सभी शक्तियाँ जैसे कि कानून ,जंगलात,फौजदारी थीं.यह वर्तमान समय के मजिस्ट्रेट की भान्ति दंड अधिकार की शक्तियाँ भी रखते थे,लेकिन वास्तविकता में यह शक्तियाँ घरेलू और झगडों तक ही सीमित  थे.
   
              खंगसर के प्रशासनिक शक्तियों से परिपूर्ण अंतिम ठाकुर प्रताप चंद थे.बुजुर्गों के अनुसार इन ठाकुरों और वजीरों का स्थानीय जनता पर बहुत खौफ था और उन की हर जायज़-नाजायज़ आदेश को जनता को कबूल करना पड़ता था .अत्याधिक गरीबी,अनपढ़ता के कारण लोगों की पहुंच उच्च अधिकारियों और न्यायालय तक नहीं थी,अत:वे काफी समय तक वजीरों के कहर और ज़ुल्मों को सहते रहे.भारत देश की आज़ादी के पश्चात भारत सरकार ने वजीरों से सभी शक्तियाँ छीन ली.वैसे भी सन के दशक में कुँठ नामक जड़ी-बूटी की नकद फसल आने के बाद स्थानीय जनता में आर्थिक सम्पनता आई और कई घराने तरक्की कर बैठे.इस वजह से भी  सामाजिक स्थिति में परिवर्तन हुआ और वजीरों के  स्तर में पतन आना शरू हुआ.

मोरेवियन मिशनरी का योगदान 
                                  
                        लाहौल  के इतिहास में मोरेवियन मिशनरी का अथाह योगदान है जिसे भुलाया नहीं जा सकता.यह ईसाई धर्म के रोमन चर्च के प्रोटेसटैंट मत को मानता था .इस मिशनरी का मुख्यालय जर्मनी में था और इन्होने अपने ईसाई मत के प्रचार-प्रसार के  लिए सन  1846 में लाहौल में भी कदम रखा.इस मत को मानने वाले ज्यादा लोग इंग्लैण्ड और स्वीडन के थे और एशिया को सारा धन लन्दन के एक कार्यालय से ही आता था .


              यह लोग करीबन एक सदी लाहौल में रह कर गये किन्तु आश्चर्य की बात यह है कि अपने धर्म को पूरी तरह लाहौल वासियों में फेला ना सके.इस धर्म के अनुयायी बहुत अधिक शिक्षित थे और कुछ तो अन्तराष्ट्रीय स्तर के प्रख्यात  लेखक और विद्वान थे.मोरेवियन लेखक जयस्क और फ्रैंक तो बहुत मशहूर लेखक थे और ट्रांस-हिमालय के अध्यन में इन दोनों का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है.डा. ए.डी.एच.फ्रैंक की पुस्तक "the antiquities of Indian Tibbet"बहुत ही बहुमूल्य पुस्तक है जिस में उन्होंने तिब्बत,लदाख और लाहौल की संस्कृति-सभ्यता पे रौशनी डाली है.

             इन्होने भोटी और तिब्बती भाषा का अध्यन्न किया और स्थानीय बोलियों के व्याकरण को समझा.इन्होने कुछ भोटी भाषा में लिखी गयी धार्मिक लेखों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया.कुछ मोरेवियन लेखकों ने तो भोटी भाषा में ही समस्त बाइबल का अनुवाद किया ताकि ईसाई मत के शिक्षाओं को लाहौल के स्थानीय जनता को समझाया जा सके और ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस धर्म की तरफ आकर्षित किया जा सके.ऐसा ही एक पोथी या दोबांग(भोटी में हस्त लिखित पांडुलिपि)पट्टन घाटी के गोहरमाँ  गाँव के लहारजे घराने में अभी भी सुरक्षित है.  
               
                 मोरेवियन मिशनरी 1846 से 1946 तक करीबन 100 वर्ष लाहौल में रहे और इन का मुख्यालय केलंग में था.इन्होने केलंग के समीप एक छोटा सा फार्म हॉउस भी बना रखा था जहां उन्होंने सर्वप्रथम लाहौल वालों को आलू बीज कर इस सब्जी से अवगत कराया.इन्होने रोजाना प्रार्थना के लिए लोअर केलंग में एक चर्च भी बनाया था .इन का मुख्य उदेश्य गरीब सम्प्रदायों का उद्धार करना था और इन की सेवा भाव बहुत ही अच्छी थी.इस सेवा भाव के पीछे वास्तविक मंशा मानवीय भी थी और अपने मत की तरफ ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ना भी उनका मुख्य लक्ष्य था.


             इन्होने लाहौली समाज को सब्जियां उगाना सिखाया,स्वेटर और जुराबे बुनना,घरों में ऊँची खिड़कियाँ,तैल से जलने वाली लैम्प,घास के बने जूतों,नाली वाली तंदूरों,सूखे फ्लश(स्थानीय बोली में घोप) और मनुष्य मल इत्यादि को खाद के तौर पर प्रयोग करने के वैज्ञानिक उपाय बताए.इन्होने ही खेती-बाड़ी के नए-नए तरीकों से लाहौलियों को रूबरू कराया .इसी मत के ए.डब्ल्यू.हायडे ने सर्वप्रथम केलंग में आलू के बीज बो कर दिखाया था और यही येही सब्जियों का राजा बाद में लाहौलियों के आय का मुख्य स्त्रोत बना .इन मिशनरियों द्वारा बताए गये इन सुधारवादी ज्ञान की वजह से लाहौल वासियों के दैनिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आये जो आज तक कायम हैं और लाहौलवासी इन चीजों के लिए उन के कृतज्ञ हैं. 
                        
                          लाहौल में एक सदी बिताने और उपरोक्त सुधार-सेवा के बाबजूद  मोरेवियन मिशनरी अपना धर्म नहीं फेला सके और इस का मुख्य कारण शायद लाहौल वासियों की अपने पुराने धर्म के प्रति अटूट आस्था हो सकती है.लाहौल के उपरी घाटियों तिनन में घेपन राजा और तोद-गाहर घाटी में बुद्ध धर्म को मानने वालों की जड़े बहुत गहरी थीं.पट्टन घाटी में हिंदू देवी-देवताओं जैसे कि शिव,पुण्यों की देवी,भेरों,केलिंग और खोड़ को बहुत आस्था के साथ पूजा जाता रहा.इस बीच में आये इन ईसाई मत के प्रचारकों को सम्भवत:इसी कारण अपना मत फ़ैलाने में असफलता हाथ लगी.लाहौली जनता को मालूम  था कि इन इसाईओं का अपना एक खुदा है जिसे वे "इशीग-मिशिग"यानि के ईसा-मसीह कहते थे.
मोरेवियन मिशनरी द्वारा लाया गया लदाक्पा परिवार
             कहते हैं कि इन की मेहनत-मशक्त जब काम नहीं आई तो इन्होने लदाख से एक परिवार को लाहौल में ला बसाया ताकि उन के द्वारा धर्म को फैलाया जा सके.उन्होंने इस परिवार का मुखिया जिस का नाम "जाजग फुन्चोग"था,को अपने 18 बच्चों या  रिश्तेदारों के साथ पट्टन घाटी के ठोलंग गांव में ठ्रोपा घराने से कुछ जमीन खरीद कर खेती-बाड़ी और गुजर-बसर के लिए दी.इन्हें लदाक्पा परिवार के नाम से जाना जाता था .इस परिवार के कुछ सदस्य बाद में यहीं ठोलंग गांव में स्वर्ग सिधारे और उन को गांव में ही दफनाया गया.

                 अभी भी ठोलंग गांव के कुछ खेतों में उन की कब्रगाहें कायम हैं.मोरेवियन मिशिनरियों ने ठ्रोपा परिवार को बदले में या बेच कर केलंग के ऊपर कहीं जमीन दी थी.भारत देश की आजादी के बाद मोरेवियन मिशनरी के प्रचारक भी अपने मूल देशों को वापिस चले गये किन्तु ईसाई धर्म में परिवर्तित लदाक्पा परिवार के सदस्य लाहौल में स्थायी तौर पर बस गये.इन्होने भी बाद में बुद्ध धर्म  को अपना लिया और स्थानीय जनसमुदाय से विवाह-शादियाँ कर बस गये.


        इसी घराने के सदस्य देचैन पलजोर ने अपना नाम बदल कर देवी सिंह रख लिया और कोई समुअल या शंमेल  नाम के सदस्य ने अपना नामकरण शेर सिंह रख लिया और पुलिस में भर्ती हो कर अपनी सेवाएँ दी.आज इस घराने  के वंशज लाहौली समाज  के जाने-माने प्रतिष्ठित परिवारों में एक है और इन की रिश्तेदारियां भी कई अच्छे घरानों से हैं.

बीसवीं  सदी के पूर्वाद्ध के दशकों में लाहौल की घटनाएं
                    सन 1904 का भूकम्प जिस ने पूरे हिमाचल में तबाही मचाई थी और विशेषकर कांगड़ा को तहस-नहस कर दिया था.पूरे हिमाचल में करीबन 30,000 लोग मारे गये थे .इस की तीव्रता इतनी अधिक थी कि लाहौल में भी इस की चपेट में आने से कुछ लोग मारे गये थे और कई गाँवों में मकान डेह गये थे.यह भूकम्प माह अप्रैल के 04 तारीख को आया था और उस वर्ष समूचे लाहौल में खूब बर्फबारी हुई थी.  
बाबु टुग-टुग
       सन 1912 में बंगाल के मशहूर क्रांतिकारी रास बिहारी बोस(1886-1945)ने दिल्ली के चांदनी चौक पे अंग्रेज वायसराय लार्ड हार्डिंग के एक जुलूस में बम फैंका और तुरंत भूमिगत हुए.उन का लक्ष्य अंग्रेज वायसराय को मारना था किन्तु इस में वह असफल रहे .ब्रिटिश हुकुमत ने उन्हें इस घटना पर पकड़ने और फांसी चढाने की घोषणा कर दी.बोस किसी तरह भाग कर लाहौल के वर्तमान मुख्यालय केलांग पहुंचे और यहाँ सात महीने डाकघर के बाबु टुग-टुग के घर रहने के पश्चात तिब्बत के रस्ते जापान जा पहुंचे.बाबु जी ने उनकी खूब सेवा की और अपने घर में बिल्कुल भूमिगत रखा .वहाँ जा कर उन्होंने ही आज़ाद हिंद सैना की नीवं रखी थी,जिस का नेतृत्व बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने सम्भाला था.

      सन 1965-66 में जब बंगाल से ही पश्चमी बंगाल से ही सम्बन्ध रखने वाले लाहौल के उपायुक्त श्री मधुसूदन मुकर्जी को इस तथ्य का पता चला तो उन्होंने जन सहयोग से रास बिहारी बोस की एक कांस्य प्रतिमा को अप्पर केलांग के चौक में स्थापित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की.यह मूर्ति अभी भी वहाँ वैसे ही स्थापित है.                                                                                                              
                                         
रन्‍ना एवं पुण्‍यों
               
                 लाहौल के पट्टन घाटी के कुछ आर्थिक सम्पन्न परिवार सदियों से अपनी देव आस्थाओं  की वजह से और पुण्य हासिल करने के लिए यज्ञों का आयोजन करते थे जिस में समस्त चौदह कोठियों से जनता को भोज में आमंत्रित किया जाता था.यह कई बार एक सप्ताह तक चलते थे.इस तरह के अनुष्ठान के आयोजन में भेड़-बकरियों की बलि दी जाती थी और भोज में मॉस के साथ-साथ  घी इत्यादि का भी खूब सेवन किया जाता था.यह दो तरह के थे -रन्ना और पुण्यों. 
     
               पुण्यों का आयोजन पट्टन घाटी में हिंदू धर्म में आस्था रखने वाले स्वानगला समुदाय के लोग करते थे जबकि रन्ना को बुद्ध धर्म में आस्था रखने वाले परिवार मनाते थे.इस तरह के सामुहिक धार्मिक अनुष्ठानों को आयोजित करने का मुख्य उदेश्य क्या था इस के बारे में अध्यन्न करना आवश्यक है.कुछ बुद्धिजीवियों के कथन अनुसार कुछ धन सम्पन्न परिवारों ने किसी पाप के प्रायश्चित हेतु तथा शुद्धिकरण के लिए इन्हें आयोजित किया था किन्तु इस तरह की स्थिति के समारोह के उदहारण कुछ ही हैं. 

            मेरे मतानुसार इस तरह के धार्मिक अनुष्ठानों को आयोजित करने का मुख्य उदेश्य किसी परिवार द्वारा  समाज  में अपने घराने के मान-सम्मान व् प्रतिष्ठा में वृद्धि करने के लिए किया जाता था.साथ ही अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा अर्चना कर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करना भी था.इन विशिष्ठ परिवारों की आर्थिक सम्पनता की वजह से इन अनुष्ठानों में उन के द्वारा दान-दक्षिणा भी खूब दी जाति थी. पुण्यों में भाटों को बुलाया जाता था और मंत्रोउच्चारणों से यज्ञ-हवन का आयोजन किया जाता था जबकि रन्ना में बोद्ध लामाओं को आमंत्रित कर कई बार उस परिवार की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए लिखित रूप में भोटी भाषा में घराने से सबन्धित विवरण व् घटनाएं इत्यादि संयोजित किये जाते थे.  
  
        अंतिम रन्‍ना का आयोजन तांदी गांव के शासनी परिवारने और अंतिम पुण्‍यों को सन 1946 में शांशा गावं के टेंटा परिवार ने आयोजित किया था.
                                                                                                                  

प्रथम  विश्व युद्ध और लाहौलियों द्वारा युद्ध में हिस्सा लेना   

                जब प्रथम विश्व युद्ध(1914-1918) शुरू हुआ तो दुनियां के कई देश दो गुटों में विभक्त हो चुके थे.सम्पूर्ण भारत पर ब्रिटेन का कब्जा हो चुका था और युद्ध में उन्होंने स्थानीय राजा-महाराजाओं के सेवा मांगी.उस समय कि मुख्य अग्रणी राजनैतिक पार्टी इंडियन नैशनल कांग्रेस ने सेल्फ गवर्नेस की प्राप्ति की शर्तों पर अंग्रेजी सरकार का युद्ध में समर्थन करने का निर्णय लिया.इस तरह भारत ने यूरोप,अफ्रीका और मध्य पूर्व के देशों में सेना और रस्लों सहित ब्रिटेन का इस विश्व युद्ध में साथ दिया जिस में करीबन 48,000 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे.                           


                     लाहौल के तोद  घाटी के समकालीन खंगसर ठाकुर अमर चंद ने ब्रिटेन को सहायतार्थ स्वरूप लाहौल घाटी से 200 युवकों की टोली गठित कर युद्ध में हिस्सा लेने का निर्णय लिया.उन्होंने स्वयं अंग्रेजों के छठे लेबर कोर्पस सैना का लाहौली नौजवानों की पांच टुकडियों सहित जमादार के रूप में प्रतिनिधित्व किया.उस समय लाहौल की तहसीलदारी भी अंग्रेजों ने खंगसर ठाकुरों के हाथ में दे रखी थी और इन ठाकुरों का दबदबा भी लाहौलियों पर बहुत अधिक था.इन के आदेशों का उल्लघंन करना का अर्थ आफत मौल लेना था.अत:युद्ध के लिए बनाई गयी टोली में जबरदस्ती भी भर्ती की गयी थी. अग्रेजों ने सन 1918 के मध्यस्थ में इस लाहौली सैना की टुकड़ी को वर्तमान ईराक के बसरा और बगदाद इलाके में भेजा किन्तु तब तक वरसाइल की संधि के पश्चात युद्ध समाप्ति की घोषणा हो चुकी थी और इन्हें वापिस लोटना पड़ा.इस सैना की टुकड़ी के कुछ लोग रह में बीमारी की वजह से मारे गये.इस मोर्चे में ठाकुर अमर चंद के साथ कोलोंग के ठाकुर जय चंद भी गये थे.   

                          बाद में भारत पे राज़ कर रही ब्रिटिश सरकार ने ठाकुर अमर चंद को उन की वफादारी और सहायता के एवज में जून 1917 में राय बहादुर की पदवी से नवाजा और पाकिस्तान के मुल्तान इलाके में 700 बीघा जमीन उन के नाम कर दी थी.भारत की स्वतंत्रता के पश्चात मुल्तान का इलाका पकिस्तान में चला गया और स्वतंत्र भारत सरकार ने उस जमीन के बदले पंजाब के मुकेरियां में 350 बीघा जमीन उन्हें सौंप दी.  

शिगरी गलेशियर का भयावह बाढ

                     सन 1940 में लाहौल-स्पि‍ति की सीमाओं के मध्‍यस्‍थ स्थित शिगरी ग्‍लेशियर में बर्फ के बडे तोले गिरने से वहां एक बडी झील बन गई करीबन 22 किलोमीटर लम्‍बे इस विशाल गलेशियर में पानी का बहाब अधिक होने  से नदी में एक भयानक बाढ का रूप ले लिया रौदर रूप में इस बाढ के कहर ने स्पि‍ति के कुछ इलाके सहित लाहौल के सिस्‍सू,पटटन घाटी के कुछ गांवों तथा वर्तमान पाकिस्‍तान के इलाकों तक भारी नुकसान पहुंचाया पारम्‍पारिक कथना अनुसार गुशाल गांव के गददी परिवार का एक सदस्‍य जो अपने घर की छत पर बैठा था,उसे यह बाढ घर सहित बहा के ले गई थी अतार्थ बाढ का स्‍तर इतना अधिक था कि गुशाल गांव जो कि वर्तमान चनाव नदी से लगभग 500 मीटर उपर है,वहां तक जल स्‍तर पहुंचा 

पटटन घाटी में फैली मवेशियों की बीमारी

                  सन1946 में लाहौल घाटी के कई गांवों में पशुओं की मूंह खोर बीमारी की वजह से सैंकडों पालतु मवेशी मौत का ग्रास बने सबसे अधिक प्रभावित क्ष्‍ोत्र पटटन घाटी के जाहलमां और गोहरमा गांव थे कहते हैं कि मत जानवरों की हडिडयों से आस-पास के नाले बूरी तरह भर गए थे और साथ लगते पडोसी गांवों के लोगों ने प्रभावित गांवों का बीमारी के डर से बहिष्‍कार कर दिया था बीमारी की अनभिज्ञता एवं उचित चिकित्‍सा एवं उपचार की कमी के कारण सैंकडों निरीह जानवर काल का ग्रास बने 

भारत की स्‍वतन्‍त्रता के पश्‍चात लाहौलियों का योगदान

         सन 1947 में भारत की स्‍वतन्‍त्रता के पश्‍चात कुछ समय तक साम्‍प्रदायिकता फैली रही मुख्‍य वजह पाकिस्‍तान का बनना एवं हिन्‍दुओं-मुस्‍लमानों द्वारा इधर-उधर पलायन करना था इन दंगों में सैंकडों लोग मारे गए थे इतिहास के इस काले अध्‍याय का असर लाहौल में भी देखने को मिला था बुजूर्गों के कथनानुसार यहां भी करीब 20 लोग फसाद का शिकार बने थे.आजादी के खुमार में लाहौल के नौजवानों ने संगठित हो कर कई टोलियां बना लीं थीं.इसी मध्‍यस्‍थ पाकिस्‍तान के सैनिकों ने जोजिला दर्रे के रास्‍ते लदाख पर आक्रमण कर दिया.भारत सरकार ने आपातकालीन स्थि‍ति को देखते हुए लदाख में सैनिक शायन लागू कर दिया.लदाख क्षेत्र को जाने का एकमात्र सुगम रास्‍ता काश्‍मीर से था अतःभारत को लदाख बचाने में कठिनाई का सामना करना पड रहा था.

                 इस नाजुक स्थिति को भांपते हुए वरगुल गांव से सम्‍बन्धित एवं लाहौर में पढे युवा भूतपूर्व श्री देवी सिंह ठाकुर ने अपने कुछ साथियों सहित दिल्‍ली को कूच किया और भारत सरकार को रोहतांग एवं लाहौल के रास्‍ते सैना को भेजने का आग्रह किया.भारत सरकार ने तुरन्‍त देवी सिंह की अगुवाई में व मेजर हरि सिंह की अध्‍यक्षता में भारतीय सैना की एक गुरखा बटालियन को लदाख भेजा.

कर्नल प्रिथि चंद
                   इससे कुछ समय पूर्व लाहौल में ही भ्‍ारती की गई चंद सैनिकों की टुकडी तोद घाटी के खंगसर ठाकुरों के परिवार से सम्‍बन्‍ध रखने वाले कर्नल प्रिथि चंद व मेजर खुशाल चंद के साथ भारी बर्फबारी,कंपकपाती ठण्‍ड और भीषड कठिनाई में किसी तरह जम्‍मू-काश्‍मीर के रास्‍ते 8 मार्च 1948 को लदाख पहुंचे.इस स्‍‍थानीय लाहौली सैनिकों की टुकडी ने बिना किसी सहायता के राह में कई बार पाकिस्‍तान के सैनिकों से झूझते रहे और गु‍रिल्‍ला लडाईयों से उन्‍हें शिख्‍सत दी.इसी बीच मई माह तक लाहौल के रास्‍ते गुरखा सैनिक टुकडी पहुचने पर इन्‍हें बडी राहत महसूस हुई.

        कुछ दिनों पश्‍चात विमान द्वारा पहली बार भारतीय सैनिकों की अन्‍य टुकडियों को लदाख में उतारा गया.इन सब प्रयासों से भारतीय सैना पाकिस्‍तान को वापिस खदडने में कामयाब हुई.पहली बार भारत सरकार लाहौली सैनिकों की वीरता से परिचित हुई.तत्‍पश्‍चात नायकों के सम्‍मान में भारत सरकार ने ठाकुर प्रिथि चंद एवं ठाकुर खुशाल चंद को म‍हावीर चक्र से तथा सुबेदार भीम चंद को दोहरे वीर चक्र से सम्‍मानित किया.श्री भीम चंद इस तरह के शोर्य पुरस्‍कार से नवाजे गए उस समय भारत के पहले सैनिक थे.उसी सैनिक टुकडी के नायक तोबगे को भी वीर चक्र मिला था.यदि इस युद्व में लाहौल के सैनिक वीरता न दिखाते तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता और मौजुदा काश्‍मीर का काफी हिस्‍सा शायद पाकिस्‍तान के कब्‍जे में होता.यह समय लाहौल के इतिहास का गौरवमय अध्‍याय रहा है.

जब पहली बार लाहौली लोग गाडियों से हुए रूबरू

                          देश की आजादी के पश्‍चात भारत सरकार ने कबाईली क्षेत्र लाहौल को बाहरी इलाकों से जोडने के लिए सडक का निमार्ण कार्य प्रारम्‍भ किया और रोहतांग जोत की उंचाई और जोखिम को देखते हुए दोनों ओर से कार्य शुरू किया जिसे बाद में एक ही जगह जुडना था.इस से पूर्व सन 1954 में भारत सरकार ने कुलियों एवं खच्‍चरों की मदद से एक जीप के कलपुर्जे जो अलग अवस्‍था में थे,को कोकसर नामक जगह पे पहुंचाया और वहां उन्‍हें पुनःजोड कर लाहौल वासियों को सर्वप्रथम यातायात हेतू यान्त्रकी साधन से रूबरू कराया.इस तरह सन1954-55 में लाहौल में पहली मर्तबा गाडियां सडक पर दोडीं.

सन 1955 का भारी हिमपात

                        23 सितम्‍बर सन 1955 में समय से पूर्व समस्‍त लाहौल घाटी में भारी हिमपात हुआ और आने-जाने वाले सभी मार्ग अवरूद्व हो गए.इस घोर आपदा में लाहौल के कई व्‍यापारी जो पश्‍चमी तिब्‍बत व्‍यापार के लिए जाते थे,दारचा,सुमदो और पांग इलाके के सरचू क्ष्‍ोत्र में अपने पालतू पशुओं सहित फंस गए.यह इलाका लदाख और लाहौल की सीमाओं के मध्‍यस्‍थ आता है.कहते हैं कि उस इलाके में एक ही रात्री में करीबन 10 फीट बर्फ पडी और ठण्‍ड के कहर से उन व्‍यापारियों के सैकडों भेड-बकरियां,घोडे,खच्‍चर आदि मारे गए.

                राह बन्‍द होने की वजह से मजबूरी में कुछ लोग ढेड माह तक वहां फंसे रहे और म्रत पशुओं के मास खा कर जीवित रहे.कुछ लोगों ने वापिस लदाख जाना उचित समझा और सारी सर्दियां वहां काटी.आपातकालीन हालात को देखते हुए भारत सरकार ने सर्वप्रथम हवाई जहाजों से भोजन,रस्‍ला और कपडे इत्‍यादि लाहौल के इलाकों में सरकारी सहायतार्थ फैंके.



       हवाई जहाजों से सिर्फ एक-दो स्‍थल मार्क किए गए जहां रस्‍ला फैंका जाना था.अतःवायरलैस से अवगत कर दिया गया था कि केलंग और त्रिलोकीनाथ में काले कम्‍बल बिछा कर जगह को चिन्हित कर दिया जाए ताकि सिर्फ उसी इलाके में चीजें फैंकी जा सके.जब यह चीजें इक्‍टठी की गई तो केलंग में ठाकुर प्रताप चंद के तथा त्रिलोकनाथ में यांग तोजिंग गांव के मास्‍टर सुखदास की जिम्‍मेवारी में यह वस्‍तुऐं लाहौल वासियों को वितरित की गईं.


          इस भारी हिमपात से उस वर्ष लाहौल घाटी में जौ और काठू की फसल को भारी नुकसान पहूंचा और फलस्‍वरूप स्‍थानीय लोगों को अ‍ार्थिक नुकसान वहन करना पडा.

6 मार्च 1979 का काला दिन

                  उपरोक्‍त वर्णित घटना की तरह सन 1979 के मार्च माह में समस्‍त लाहौल घाटी में बेहद ज्‍यादा बर्फबारी हुई जिस से सामान्‍य जीवन को बेहद प्रभावित कर दिया.इसी माह के दिनांक 6 को एक ही दिन लाहौल घाटी के कई गांवों में हिमखण्‍ड गिरने से जान और माल की भारी तबाही हुई.पटटन घाटी के गांव जैसे कि बारिंग,गाडंग,चुलिंग,गालिंग व गाहर घाटी के यूरनाथ जैसे गांव में मौत की तबाही का मंजर देखा गया.इन सब में सैंकडों पालतु मवेशियों सहित करीब 250 लोग मौत का शिकार बने.

      इस काले दिन में लाहौल घाटी का वार्षिक नव वर्ष का पर्व फागली भी था और प्रातःकाल में लोग अपने घरों में खाने-पीने का आनंद ले रहे थे कि प्रक़‍ित के इस कोप का ग्रास बन बैठे.यह अन्‍दाजा लगाया जाता है कि शायद यह प्रकोप भूकम्‍प के झटकों से हुआ हो क्‍यों कि उपरोक्‍त सभी गांवों में यह कहर एक ही दिन ढाया था.

जनजातीय दर्जे की प्राप्‍ित 
       
        भारत का संविधान लागू होने के पश्‍चात सन 1952 में आजाद भारत में प्रथम चुनाव किए गए.लाहौल को पंजाब राज्‍य के कुल्‍लू संविधान क्षेत्र में रखा गया और 26 जनवरी का दिन वोट देने का दिन निश्चित किया गया.समस्‍त लाहौल वासियों के लिए कुल्‍लू क्षेत्र के वशिष्‍ठ एवं स्पिति वासियों के लिए कलाथ को पौलिंग स्‍टेशन बनाया गया.जैसा कि लाहौल जनवरी माह में बर्फबारी के कारण स्‍वाभाविक तौर पर बन्‍द रहता था,अत्‍ाःचुनाव की तिथि जनवरी माह में होने की वजह से लाहौल-स्पिति के लोगों में बेहद निराशा थी.उस समय कुल्‍लू पहुंचने के दोनों रास्‍ते जो कि रोहतांग और कुजंम दर्रा थे,दोनों शीतकाल में बर्फबारी की वजह से बन्‍द थे.

          ठीक इसी वर्ष जाहलमा गांव के लाहौर में शिक्षित जाहलमा गांव के युवा श्री शिव चंद ठाकुर और वरगुल के श्री देवी सिंह ठाकुर ने गलत समय में चुनाव कराए जाने की वजह से समस्‍त लाहौल वासियों को इन राष्‍ट्रीय चुनावों का बहिष्‍कार करने का आग्रह किया.इन चुनावों के विरोध में कई जगह जूलूस भी निकाले गए.अन्‍ततःभारत सरकार ने जायज मांग को स्‍वीकार करते हुए पुनः23 मार्च 1952 को लाहौल-स्पिति वासियों के लिए चुनाव का दिन चुनने का निर्णय लिया.किन्‍तु यहां की जनता ने इस तिथि का भी घोर विरोध किया.ततपश्‍चात पंजाब राज्‍य सरकार के अनुरोध पर भारत सरकार ने स्थि‍ति का जायजा लेने का निर्णय लिया.

         अतःलाहौल के जनता के कुछ प्रतिनिधियों के दल को दिल्‍ली से बुलावा आया.ठाकुर देवी सिंह एवं शिव चंद ठाकुर तुरन्‍त दिल्‍ली रवाना हुए और वहां तत्‍कालीन प्रधानमन्‍त्री पंण्डित जवाहर लाल नेहरू,रक्षा मन्‍त्री सरदार वल्‍लभ भाई पटेल एवं कानून मन्‍त्री बी.आर.अम्‍बेदकर से मिले और उन्‍हें लाहौल-स्पिति की समस्‍या से अवगत कराया.उचित समय देखते हुए इन्‍होनें लाहौल-स्पि‍ति को संवेधानिक तौर पे जनजातीय दर्जा देने की मांग रख दी.

       प्रधानमन्‍त्री नेहरू ने स्‍िथ्‍ाति का वास्‍तविक जायजा लेने के लिए अपने निजी नुमायदे श्रीकान्‍त को लाहौल्‍ा भेजने का निर्णय लिया.जब श्री कान्‍त लाहौल पहुंचे तो वहां के पिछडेपन से रूबरू हुए.उन्‍होने देखा कि समस्‍त इलाके में सडक,बिजली और अस्‍पताल भी मुहया नहीं हुए थे.उन के अनुसार उस समय समस्‍त लाहौल घाटी में मात्र 4 स्‍कूल उपलब्‍ध थे.लाहौल की जनता से समय रहते उन से एक अलग जनजातीय परिषद की मांग भी उन के समक्ष रख दी.

             अपनी लाहौल यात्रा के पश्‍चात श्रीकान्‍त ने अपनी रिपोर्ट दिल्‍ली में भारत सरकार को सौंप दी.अन्‍ततःसन 1956 में अनुसूचित जनजातीय अधिनियम संशोधन के द्वारा भारत सरकार ने लाहौल-स्पिति को जनजातीय जिला घोषित कर दिया.इस के 4 वर्ष के पश्‍चात सन 1960 में इसे पंजाब राज्‍य के एक पृथक जिले का दर्जा दिया गया.इस से पूर्व य‍ह कुल्‍लू जिले का एक तहसील मात्र था.

      सन 1966 के पंजाब पुर्नगठन अधिनियम के द्वारा पुनःलाहौल-स्पिति को जनजातीय क्षेत्र का दर्जा दोहराया गया और यह हिमाचल राज्‍य का एक सम्‍पूर्ण हिस्‍सा बना.इस के पश्‍चात सन 1971 में हिमाचल प्रदेश को पूर्ण राज्‍य का दर्जा मिलने से सन 1975 में चम्‍बा लाहौल का क्षेत्र जिस में उदयपुर से तिंदी तक का इलाका आता था,को भी लाहौल में जोड दिया गया.ततपश्‍चात लाहौल जिला को भारतीय संविधान के समय-समय के जनजातीय आदेशों के तहत एवं अनुसूची 342(1) के अनुसार जनजातीय क्षेत्र का दर्जा दिया जाता रहा है.

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लाहौल के देवी-देवता एवं धर्म


लाहौल,एक शिव स्‍थली


ड्रिल्‍बू पर्वत जहां शिव एवं पार्वती का विवाह हुआ
    लाहौल को शिव भूमि कहना भी गलत नहीं होगा.‍स्‍थानीय गाथाओं के अनुसार चन्‍द्र एवं भागा नदियों के संगम स्‍थल तांदी के साथ लगते ड्रिल्‍बू पर्वत शिखर पर शिव का विवाह पार्वती से हुआ था और यहीं से उन की गणों की बारात मणी महेश को रवाना हुई थी.


शिव की बारात के पद निशान
                       
              यह भी कहा जाता है कि जिस राह पर यह बारात चली थी उस के निशान स्‍वरूप पर्वत श्रंखला में सफेद धारियां बनी हैं जो ड्रिल्‍बू पर्वत से आरम्‍भ हो कर मणी महेश तक बनी हुई हैं.इन सफेद पत्‍थरों को स्‍थानीय बोली में ''शिव राघ''यानि शिव का पत्‍थर भी कहा जाता है और पूजा जाता है.


            इस के अलावा पटटन घाटी के मेहलिंग गांव में शिव को पूजा जाता है.उन्‍हें यहां महादेव के नाम से पूजा जाता है.इस गांव में शिव जी के डेहरे के साथ शिव लिंग स्‍वरूप शैल भी पडे हुए हैं.


             पटटन घाटी के ही चोखंग गार की ओर मशहूर पवित्र झील नीलकंठ भी है जिस के दर्शन के लिए हर वर्ष सैंकडों स्‍थानीय लोग प्रस्‍थान करतें हैं और यहां बडी श्रधा से शिव को पूजा जाता है.


                इन सब के अलावा प्रसिद्व तीर्थ स्‍थल त्रिलोकनाथ या रेबाग जो कि पटटन घाटी में उदयपुर के नजदीक है,को भी शिव भगवान के मुख्‍य मन्दिरों में एक माना जाता है जहां भी हजारों श्रद्वालू दर्शनार्थ आते हैं.


                            
घेपन राजा

शाशैन गांव में घेपन देवता का वर्तमान मन्दिर
         लाहौल के सबसे प्रसिद्व एवं अधिष्‍ठ अराध्‍य देवता राजा घेपन हैं,जिन का मन्दिर तिनन घाटी के शाशेन गांव में है.इस देवता को स्‍थानीय लाहौली बोली में घेपंग कहते हैं.इस शक्‍ितशाली देवता के मूल क्षेत्र के बारे में गाथाओं के आधार पर स्‍थानीय बुद्विजीवियों के विचार अलग-अलग हैं.कुछ इन्‍हें मूलतःदक्षिण दिशा से तो कुछ मध्‍य ऐशिया से सम्‍बन्धित देवता मानते हैं जो प्राचीन काल में वहां से प्रस्‍थान कर इस इलाके में स्‍थायी तौर पर बस गए.इस देवता का प्रभाव इस क्षेत्र में इतना अधिक था कि एक विशाल हिमाच्‍छादित पर्वत का नाम ही घेपांग चुडा या घेपंग जोत रखा गया है.

            घेपन राजा का वास्‍तविक डेरा सिस्‍सू गांव के उपर एक पहाडी पर ग्‍यालिंग नामक जगह पर है जहां आरम्‍भ में वह वहां आ कर बसे थे.लाहौल के बुजूर्गों के कथनानुसार घेपन पुरातन युग में मध्‍य ऐशिया से अपने परिवारिक सदस्‍यों एवं एक अंगरक्षकों की सेनिक टुकडी सहित पलायन कर लाहौल आ कर बस गए थे.सम्‍भवतःवहां वह किसी क्षेत्र के राजा के कई पुत्रों में एक रहे हों और अपने व्‍यक्त्वि एवं दमखम के बल पर दक्षिण दिशा को पलायन कर वहां अपना नया राज्‍य स्‍थापित करने के लिए चल पडे हों या प्राचीन मध्‍य ऐशिया में तातारियों के मध्‍यस्‍थ राजनै‍तिक अराजकता के चलते यह योद्वा एक अलग एवं शान्‍त इलाके में अपना राज्‍य की नींव डालने के लिए निकला हो और अन्‍तत्‍ाःभौगोलिक परिस्थि‍तियों के अनुकूल सबसे उचित क्षेत्र लाहौल देख कर यहीं बसने की ठान ली हो.बाद में अपने प्रभाव से इस क्षेत्र के राजा बन गए हों क्‍योंकि उन्‍हें राजा के नाम से भी सम्‍बोधित किया जाता है.

         कहते हैं कि घेपन को लाहौल आने से पहले राह में कई कष्‍ट झेलने पडे,युद्व भी करना पडा.कई मौकों पे उन्‍हें कुटनी‍ति से भी काम लेना पडा.किव्‍दं‍तियों के अनुसार उन्‍हें जोजिला दर्रे पर एक राक्षस से भी युद्व करना पडा जिस में उन की जीत तो हुई किन्‍तु अन्‍न के कुछ कण जो उन्‍होनें मूंह में छिपा रखे थे,वह युद्व में इधर-उधर बिखर गए,अतःबाद में अनाज उन क्षेत्रों में उन्‍हीं बिखरे बीजों का वजह से हुई.अत्‍ाःकुछ लोगों के अनुसार घेपन को ''अन्‍न का देवता''कहना कतई अनुचित नहीं लगता.उन के कभनानुसार यह घेपंग थे जो मध्‍य ऐशिया से लाहौल्‍ा जैसे वीरान एवं उजाड जगह में सर्वप्रथम अनाज के बीज बांस के खोखले में डाल कर छिपा कर लाए थे.जन कथन के अनुसार कुछ अनाज उन्‍होनें मूंह एवं बाजुओं में छिपा कर लाए थे,जो रास्‍ते में कई जगह युद्व लडते वक्‍त बिखर गए और फलतःउन जगहों पर अनाज की पैदावार हुई.

        हाल ही में कुछ स्‍थानीय बुद्विजीवियों के शोध मुताबिक घेपंग प्राचीनतम काल में नहीं बल्कि सातवीं सदी के उतरार्द्व में मध्‍य ऐशिया से आए और उस समय बुद्व धर्म के तान्त्रक मत को फैलाने वाले गुरू पदमसम्‍भव के साथ घेपंग का लाहौल की सीमा में किसी पर्वत पे जादू-टोनों से परिपूर्ण एक भंयकर वाक युद्व हुआ.उन के अनुसार घेपंग भी जादू-टोनों में महारती थे.पदमसम्‍भव ने पूरी कोशिश की ताकि घेपन को राह में रोका जा सके और उसे वहां अपना सामराज्‍य फैलाने से रोका जा सके.इन दोनों के धार्मिक विचारों से ले कर पशुओं की बलि इत्‍यादि पर भी मतभेद था.अन्‍ततःगुरू पदमसम्‍भव इस शर्त पर माने कि वह उन्‍हें तभी लाहौल आने देगें यदि घेपन अपने लिए पशु बलि नहीं लेगा.

             इस युद्व के पश्‍चात घेपन ने अपने टोली सहित आगे को प्रस्‍थान किया तो उस समय तोद घाटी पूरी तरह आबाद नहीं थी.अतःबेरोकटोक वह गाहर घाटी के मुहाने स्‍तींगरी पहुंचे वहां खेतों में लोगों की आवाज सुनी तो उन्‍हें यह जानते देर नहीं लगी कि आगे किसी अन्‍य नस्‍ल के लोग आबाद हैं,अतःउन्‍होंने काफी सोच-विचार के पश्‍चात मार्ग बदलने का निश्‍चय किया.वह भागा नदी के पार प्‍यू‍कर गांव से होते हुए चलते गए और कारदांग के उपर ''रांगचे''नामक चोटी को पार कर गुन्‍धला पहूंचे.

      तांदी संगम स्‍थल के रास्‍ते घेपन ने प्रस्‍थान करने का विचार इस लिए त्‍याग दिया क्‍योंकि वहां से आगे भी चनाव नदी की घाटी में अन्‍य सम्‍प्रदाय के लोग बसे थे और वहां के राजाओं या जागीरदारों से टकराव की स्थि‍ति से बचना ही औचित्‍य समझा.घेपन के एक भाई या अंगरक्षक जिस का नाम ''तंगजर''था,ने प्‍यूकर इलाके में ही बसने की ठान ली और एक बुजूर्ग साथी ''मेंलांग तेते''ने रांगचा पर्वत के पार गुन्‍धला में ही अपना स्‍थायी घर बना लिया.

         घेपन के दो अन्‍य अंगरक्षक या प्रहरी ''नू'' और ''खार''भी तिनन घाटी के मरगयद गांव के उपर नुकर में बस गए.घेपन की माता भी सिस्‍सू गांव के उपर कैवाग या शखर में जा बसी.घेंपन की पत्‍नी भोटी देवी रूपसांग में जा बसी.शाशैन गांव में घेपन के वजीर तिंगलांगगुर को भी पूजा जाता है क्‍यों कि वह भी उन के साथ हमेशा वहां रहा.



       ऐसा प्रतीत होता है कि राजा घेपन एक बहुत बुद्विमान,दयालु एवं माननीय शासक था और शनै-शनै उन का प्रभाव सम्‍पूर्ण पटटन घाटी में फैलता गया.यहां तक की उस समय चम्‍बा राज्‍य के अधिपत्‍य में आने वाले गांव मढग्रां तक राजा घेपन का बोलबाला था.


        जनश्रु‍तियों के अनुसार घेपन के लाहौल में पलायन से पूर्व सम्‍पूर्ण तिनन घाटी में ड्राबला या ड्रला नामक देवता का राज था.कथा अनुसार ड्राबला स्‍वभाव से बेहद शरीफ था और वह एक बार भगवान के समुख इस आश्रय से पहुंचा कि उसे समस्‍त लाहौल घाटी का राजा करार दिया जाए.भगवान ने उस की बात मान ली और वह प्रसन्‍नता में वापिस चल पडा किन्‍तु राह में कूटनी‍तिज्ञ घेपन ने उसे रोक कर पूछा कि वह कहां से आ रहे हैं.ड्राबला ने सारी सच्‍चाई घेपंग के समुख रख दी.इस बीच घेपंग ने ड्राबला से अनुरोध किया कि क्‍या वह कुछ देर के लिए घोडे की रस्‍सी को पकड रखेगें ताकि वह भी लगे हाथ भगवान से मिल सकें.तुरन्‍त भगवान के पास पहुंच कर घेपन ने भगवान से वही प्रार्थना की कि उन्‍हें समस्‍त लाहौल का इलाका राज-पाठ चलाने के लिए दे दी जाए किन्‍तु जब भगवान ने कहा कि यह अधिकार तो वह कुछ देर पहले ड्राबला को दे चुके हैं तो तुरन्‍त घेपन ने भगवान से अनुरोध किया कि खिडकी से देखिए ड्राबला तो उस का घोडे की रखवाली करने वाला सामान्‍य इन्‍सान है और उस से कैसे राज्‍य सम्‍भाला जाएगा.अतःअपनी तारीफ करने के बाद घेपन ने भगवान को निर्णय बदलने के लिए विवश किया और राज-काज अपने नाम करने में सफल हो गए.


         अतःकथाओं के अनुसार ड्राबला जिन का मन्दिर अब राहलिंग नामक गांव में है,घेपन से पहले लाहौल में आने की वजह से वरीयता में उपर रखा जाता है.आज भी जब भी इन देवताओं को जब किसी विशेष उपलक्ष्‍य में निकाला जाता है तो ड्राबला को हमेशा घेपंग से उपर ही रखा जाता है.


    घेपन और ड्राबला जैसे लाहौली देवताओं के बारे में स्‍थानीय लेखकों के विभिन्‍न राय हैं.गाहर घाटी के प्रख्‍यात विद्वान छेरिंग दोरजे इन्‍हें बोन देवता मानते हैं.ड्राबला को स्पि‍ति के हंसा गांव में भी पूजा जाता है,वहां के लोगों के अनुसार वह एक होर/मंगोल या मध्‍य ऐशियाई योद्वा था जिस ने हान या बोद्व धर्म के विरूद्व लडते हुए अपनी कुर्बानी दी थी.कुछ बूद्विजीवी घेपन को आर्य वर्ण का शासक मानते हैं क्‍यों कि बलि प्रथा आर्य समुदाय के लोगों का एक अभिन्‍न अंग था.आर्य देवता के आगमन एवं पूजा में पशुओं की बलि दी जाती थी और यह प्रथा आज भी कायम है.


       आज भी इस देवता के आगमन पे जनता का हुजूम उमड पडता है और सैंकडों भेडों की बलि दी जाती है परन्‍तु स्‍थानीय लागों के मतानुसार राजा घेपन स्‍वंय बलि नहीं मांगते बल्कि उन के साथ चल रहे गणों के लिए यह सैद्वान्तिक भोजन है अन्‍यथा न मिलने पर वह रूठ जाते हैं.स्‍वंय घेपन के लिए मक्‍खन से बने भेड जिसे मारदंजा कहते हैं,पेश किया जाता है.


     घेपन एवं अन्‍य गण देवताओं को सजा कर बाहर निकाला जाता है तो इन का रूप कुछ विचित्र सा दिखता है.लम्‍बे लकडी को विभिन्‍न तरह के पूजा-पाठ में काम आने वाले रंग-बिरंगे कपडों जिन्‍हें खाताग कहते हैं,से लपेटा जाता है और आगे मुख की तरफ बहुत बडी पगडी लपेटी जाती है.इस चिचित्र आकार की वजह से कई विदेशी लेखक जो लाहौल पधारे थे,उन्‍होंने इसे नाग समुख मान कर नाग देवता भी माना है.


     लाहौल के अन्‍य विद्वान श्री अजय का कहना है कि बौद्व पेंथियन में ''लू'' यानि नाग एक महत्‍वपूर्ण देव वर्ग है किन्‍तु उन के मतानुसार नाग शायद मुल तिब्‍बती समुदाय नहीं थे बल्कि पश्चिम उतर के गिलगित,हुम्‍जा और काश्‍मीर क्षेत्र से पलायन करते हुए हिमालय से दक्षिण की ओर उतर भारत तथा तराई में फैल गए थे.वैदिक आर्यों ने इन्‍हें किरात-नाग आदि कह कर पुकारा है.उन के अनुसार तिब्‍बती बुद्व धर्म में नाग का सन्‍दर्भ धार्मिक कारणों से आया होगा क्‍योंकि तिब्‍बती बुद्व धर्म में शैव मत का प्रभाव है,जो कि नाग समुदाय का मूल निवास स्‍थान रहा है.राजतरंगणी और नील मत पुराण में इस के लिखित साक्ष्‍य हैं.यदि घेपन को नाग वंश का मान भी लिया जाए तो श्री अजय के अनुसार निपङ,गंडियारा और ड्राबला जैसे देवता नागों के हिमालय प्रवेश से पहले के मूल देव हैं.बाद में बोद्व धर्म के वर्चस्‍व के बाद हिमालय क्षेत्र में इन देवताओं का नागों के साथ अन्‍तर्विलियन हो गया.


       वर्तमान समय में घेपन राजा की कुल्‍लू के 18 करणुओं नाम के देवताओं से मित्रता है और विशेषकर वह अपने भ्राता जम्‍बलू से मिलने हर 12 वर्ष में एक बार मलाणा जरूर आता है और उस के गुर कणाशी एवं कुल्‍लुई बोली में खुल कर संवाद करते हैं.जम्‍बलू देवता के बारे में भी विद्वानों की राय अलग-अलग है.कई उन्‍हें घेपन का भाई समझ,मध्‍य ऐशिया से पलायन कर आए इन्‍द्र समान देवता मानते हैं जो कि मलाणा जैसी उंचे स्‍थल पर जा बसा.भाषाविद्वों के अनुसार लाहौली बोली और मलाणी की कणाशी बोली में बहुत अधिक समानता है.


         राजा घेपन तब तक कुल्‍लू को प्रस्‍थान नहीं करते जब तक कुल्‍लू के राज घराने की कुल देवी हिडिम्‍बा साथ न हो.इस से प्रतीत होता है कि घेपन  देव का सम्‍बन्‍ध पुरातन काल से कुल्‍लू के देवी-देवताओं से रहा है.जब भी घेपन के पुजारी कुल्‍लू प्रवेश करते हैं तो मनाली से 6-7 कि.मी.दूर कुलंग गांव जहां जम्‍बलू का मन्दिर है,में ब्‍यास श्रषि और जम्‍बलू के पुजारियों से संवाद करते हैं तो कुल्‍लई बोली में कुछ निम्‍न लाइनें अवश्‍य बोलते हैं-


                         ''ऐ लोको,इक ध्‍यान केरा,इक मन केरो,
                                       आसे जै राजा मान सिंह रा वधू हौन्‍दा सी,
                                        तां बुन्‍नै कांना हिडिम्‍ब,
                                      दिल्‍ली मंझे लोहे रा देउ लाए ती''


         इन संवादों से प्रतीत होता है कि घेपन राजा का सम्‍बन्‍ध कुल्‍लू से प्राचीन काल से रहा है.हो सकता है कि लाहौल कई बार कुल्‍लू के प्रभुत्‍व में रहा,इस लिए कुल्‍लू के शासकों ने यहां शान्‍ित एंव सदभावना बनाए रखने के लिए लाहौल के अधिष्‍ठ देवी-देवताओं को पूरी श्रद्वा दी और आस्‍थाओं के साथ खिडवाड नहीं किया,तभी कालोतर में यह धार्मिक सम्‍बन्‍ध  प्रगाढ बनते चले गए.


बुद्व धर्म


       भारत के मध्‍य युग इतिहास की भान्ति लाहौल भी कर्मकाण्‍डों एवं बलि प्रथा से प्रभावित था.धार्मिक अनुष्‍ठानों में पशुओं की बलि देना आम बात थी.सातवीं सदी में अंहिसा में अप्‍पार आस्‍था रखने वाले बुद्व धर्म के अनुयायियों ने इस हिन्‍दू धर्म बाले बाहुल्‍य इलाके में धर्म प्रस्‍सार की चेष्‍टा आरम्‍भ की.सर्वप्रथम लाहौल में बुद्व धर्म फैलाने का श्रेय गुरू पदम सम्‍भव को जाता है.


                पदम सम्‍भव तक्षशीला नामक विश्‍वविझालय में एक उच्‍च स्‍तर के आचार्य थे और वर्तमान पाकिस्‍तान के सिन्‍ध प्रान्‍त के स्‍वात क्षेत्र के एक ब्राहमण परिवार से सम्‍बन्‍ध रखते थे.तक्षशीला विश्‍वविझालय का क्षेत्र उस समय वर्तमान पेशावर के नजदीक था.उच्‍चतम ख्‍या‍ति अर्जित करने के उपरान्‍त पदम सम्‍भव ने उस समय के एक अन्‍य विश्‍व विख्‍यात विश्‍वविझालय नालन्‍दा जो कि वर्तमान बिहार में था,में भी कुछ समय शिक्षण कार्य किया.


          सांतवी सदी के वर्ष 622 में तिब्‍बत के शासक शोग चेन घनपो ने सामराज्‍य विस्‍तार की नी‍ति में भारत व चीन के कुछ इलाकों पे आक्रमण कर कब्‍जा कर दिया.उस का मुख्‍य लक्ष्‍य इन इलाकों में बुद्व धर्म को फेलाना था.वास्‍तव में वह बुद्व धर्म से बेहद  प्रभावित था और प्राचीन बोन धर्म को खत्‍म करना चाहता था.घनपो ने अपने मन्‍त्री सम्‍भोटा को भारत जा कर विश्‍वविझालयों से बुद्व धर्म की पवित्र पुस्‍तकें लाने के लिए भेजा ताकि उन इलाकों में व्‍यापक तौर पर फैलाया जा सके.‍तिब्‍बती परम्‍पराओं में सम्‍भोटा को मुजूश्री का अवतार मानते हैं जिन्‍होनें बुद्व धर्म को तिब्‍बत में फैलाने में बहूमुल्‍य योगदान दिया.किन्‍तु इस समय बुद्व धर्म सिर्फ पूर्वी तिब्‍बत तक ही फैला था और पश्‍चमी तिब्‍बत में इस का प्रभाव न के मात्र  था.लाहौल के कर्मकाण्‍डों और बलि प्रथा की तरह चीन एवं तिब्‍बत के बाहुल्‍य इलाके में भी तन्‍त्र-मन्‍त्र से परिपूर्ण धर्म बोन धर्म का प्रभाव था.इस धर्म में आस्‍था रखने वाले प्रक्रति,सूर्य,चन्‍द्र एवं भूत-प्रेतों में विश्‍वास रखते थे.


          मध्‍य युग के तिब्‍बत के पांचवे शासक त्रिसाग देवसान ने भी व्‍यापक तोर पर बुद्व धर्म फैलाने के लिए गुरू पदम सम्‍भव को 747 ई.में निमन्‍त्रण भेजा.अतःइस आग्रह पर वह नेपाल के रास्‍ते तिब्‍बत चले गए.स्‍वंय गुरू पदम सम्‍भव तन्‍त्र विघा के प्रकाण्‍ड ज्ञाता थे और बोन धर्म वाले इलाके में बुद्व धर्म का प्रचार प्रस्‍सार करना उन के लिए एक चुनौती थी.जिस प्रकार लोहा ही लोहे को काटता है,वेसे ही जादू-टोनों से परिपूर्ण बोन धर्म को तन्‍त्र विघा से ही खत्‍म किया जा सकता था.अतःआचार्य पदम सम्‍भव जहां भी गए,उन्‍होनें वहां तान्‍त्रिक बुद्व धर्म को फैलाना शुरू कर दिया.उन्‍होनें भोटी भाषा में बुद्व धर्म की पुस्‍तकों जैसे की काग्‍युर आदि का भी अनुवाद किया.

     
              लाहौल में सर्वप्रथम किस दिशा से बोद्व भिक्षू यहां प्रचार-प्रसार हेतू पधारे,इस बारे में भी कई भ्रान्तियां हैं.कुछ लागों के कथनानुसार यह पश्चिमी तिब्‍बत से नीचे की ओर फैला.जबकि अन्‍य के अनुसार सातवीं सदी में आचार्य पदम सम्‍भव रिवालसर,जहोर और गारशा(मण्‍डी और लाहौल)से इस धर्म का प्रचार करते हुए ही तिब्‍बत पहुंचे.लाहौल में पहुंच कर उन्‍होंने तांदी संगम के नजदीक पर्वत पर मशहूर गुरू घण्‍टाल मठ की नींव रखी.आज यह मठ बुद्व धर्म के ड्रुगपा मत से सम्‍बन्‍ध रखता है.



धार्मिक गतिविधियों का युग और लामा रिन्‍चेन जंग्‍पो

   
              ग्‍यारवीं सदी में लाहौल में बुद्व धर्म का अत्‍याधिक फैलाव हुआ,इस लिए इस अवधि को लाहौल में धार्मिक गतिविधियों का युग कहना अनुचित नहीं होगा.इस युग में पुराने ड्रग्‍पा मत को थोडा धक्‍का लगा और उस की जगह नए मत करग्‍युदपा ने पांव पसार लिए और कई जगह नए मठों की स्‍थापना की गई.इस सदी में लाहौल में बुद्व धर्म के मशहूर प्रचारक लामा टिलो,नारो,मारपा और मिलारेस्‍पा थे.इसी सदी में तिब्‍बत और वर्तमान स्पि‍ति के साथ लगते घुगे राज्‍य के प्रसिद्व वास्‍तुकार,शिल्‍पकार और भाषाविद्व लोचावा जंग्‍पो(958-1055 ई.)ने कश्‍मीरी मिस्‍त्रयों की सहायता से लाहौल के गुमरांग और सिसू जैसे मठों का निमार्ण किया.स्पि‍ति में जंग्‍पो ने घुगे शासक येशओद के समय 996 ई.में मशहूर ताबो मठ का निमार्ण भी किया.बुद्व धर्म के अप्‍पार प्रचार-प्रसार हेतू  किए गए इन अदभुत निमार्ण कार्यों की वजह से लामा रिन्‍चेन जंग्‍पो को ''हिमालय के मठों का प्रथम संस्‍थापक''भी कहा जाता है.इस वास्‍तुकार को बुद्व धर्म की पुस्‍तकों में रत्‍न भद्र के नाम से भी जाना जाता है.


लो ड्रुग्‍पा मत और लामा देवा ग्‍याछो


      सोलहवीं एवं सतरहवीं सदी के पूर्वाद्व में बुद्व धर्म के एक अन्‍य मत लो ड्रग्‍पा के भिक्षुओं ने लाहौल पधार कर इस मत का प्रचार-प्रसार आरम्‍भ किया.इस मत का मुख्‍यालय भूटान में था.उन्‍होनें गाहर घाटी के शाशुर और तिनन घाटी के गोन्‍धला के मठ की नींव रखी.इस मत को फैलाने का सारा श्रेय मठों के द्वितीय संस्‍थापक लामा देवा ग्‍याछो को जाता है.



              इसी बीच एक अन्‍य मत गेलुग्‍पा जिस के भिक्षु पीली टोपी पहनते थे,के अनुयायियों की संख्‍या में भी इजाफा हुआ.गेलुग्‍पा मत का मुख्‍यालय लदाख के मशहूर हेमिस मठ में था.इन्‍होनें लाहौल में तिनन घाटी के सिसू के एक छोटे से मठ में रहना शुरू किया.स्पिति में इस मत का मुख्‍य मठ ‘’की’’में था.
   
               ग्‍यारवीं सदी में लदाख के राजा के कहने पर खानाबदोश तिब्‍ब‍तियों और मंगोलो ने लाहौल पर आक्रमण किया.इस की मुख्‍य वजह लदाखी शासक का गेलुग्‍पा मत से मतभेद था और उन्‍होनें लो ड्रुग्‍पा मत को पूर्ण सर्मथन दे रखा था.उस समय पश्‍चमी तिब्‍बत में लो ड्रुग्‍पा मत के मशहूर सन्‍त लामा जोग्‍फा का सुधारवाद का प्रभाव था किन्‍तु गेलुग्‍पा मत के विरोध के कारण इस का प्रभाव लाहौल तक नहीं पहुंच सका.लाहौल राजनितिक तौर पर लदाख के अधीन था,अतःमजबूरन धर्म हित में लदाखी राजा ने लाहौल पर आक्रमण कराया जिस में गैलुग्‍पा मत के कई मठों को घ्‍वस्‍त कर दिया गया.


मरगुल एक प्रसिद्व तीर्थ स्‍थली


      लाहौल के पटटन घाटी में त्रिलोकनाथ की तरह एक और प्रसिद्व तीर्थ स्‍थली मरगुल या उदयपुर में है जहां माता म्रकुला या भगवती का एक भव्‍य मन्दिर है.वास्‍तव में इसी माता के नाम पर इस कस्‍बे का नाम मरगुल पडा.यह इलाका पूर्व में कई बार चम्‍बा के राजाओं के अधीन रहा जिन की मुख्‍य राजधानी उस समय भरमोर में थी.इस इलाके में आने के कई सुगम रास्‍ते थे,जिन में कुगती जोत का रास्‍ता बेहद सुलभ था.


         चम्‍बा के राजा चतर सिंह के पुत्र उदय सिंह(1690-1720 ई.) ने जब सतरहवीं सदी में लाहौल पर आक्रमण कर लदाखी राजा से इसे जीत लिया तो उसने स्‍थानीय राणाओं को अपना नुमायदा नियुक्‍त कर काफी समय तक राज किया.उदय सिंह ने मरगुल नगरी का नाम बदल कर उदय सिंह रख दिया.


        उदयपुर का एतिहासिक माता का मन्दिर अनूठी कला का साक्षी है.कथाओं के अनुसार इस भव्‍य काठ कला से सुसजित मन्दिर का निमार्ण देवताओं के वास्‍तुकार या शिल्‍पकार विश्‍वकर्मा ने किया था.मन्दिर के पुजारियों के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण स्रष्टि से पूर्व हुआ है और वेदों और पुराणों में घटित घटनाऐं इस मन्दिर में विश्‍वकर्मा द्वारा पूर्व नियोजित निति से पहले ही दर्शा दी गईं थी.खैर यह सब दन्‍त कथाओं के आधार पर है जो एक मुख से दूसरे मुख को समय के साथ-साथ  फैलती गई.
      
      कुछ विद्वानों के अनुसार इस खूबसूरत मन्दिर का निमार्ण छटी सदी में वर्तमान पांगी के दूरस्‍थ क्षेत्र धरवास के एक घुघा नामक ब्राहमण शिल्‍पकार द्वारा किया गया था.मन्दिर में काठ पर की गई अदभुत कलाक्रतियों को देख कर यह कहना गलत नहीं होगा कि वह कलाकार अपनी कला का ध्‍ानी था और उसे ''चम्‍बा-लाहौल का माईकल ऐन्‍जेलो''कहना बिल्‍कुल गलत नहीं होगा.कुछ लोगों के अनुसार मनाली के ढुंगरी में हिडिम्‍बा का मन्दिर और लाहौल के गुन्‍धला के किले का निमार्ण भी इसी महान कलाकार द्वारा किया गया था.साथ ही कहतें हैं कि उस वास्‍तुकार का एक हाथ नहीं था यानि सारा निमार्ण कार्य सिर्फ एक ही हाथ से किया गया है.


       यदि इस मन्दिर के चारों ओर भीतरी दिवारों पे नजर डालें तो काठ से बनाई हुई प्रथ्‍वी में घटित सभी युगों,महापुरूषों,देवताओं और असुरों के सागर मंथन,भगवान विष्‍णू के सभी रूपों,क्रष्‍ण और राम लीला,रामायण,महाभारत,भगवान बुद्व,श्रषि-मुनियों आदि की सभी कथाओं को देखा जा सकता है.जो अनूठी कला इस मन्दिर में है,शायद ही उतर भारत के किसी प्राचीन मन्दिर में इस तरह की कला देखी जा सके.मन्दिर के अन्‍दर एक और मुख्‍य गर्भ ग्रह है जहां पर माता म्रकुला की भव्‍य प्रतिमा स्‍थापित है.मन्दिर के दरवाजे पर दो विशालकाय देत्‍यों की भी काठ में बनी आक्रतियां हैं जो कि द्वारपाल स्‍वरूप खडे हैं.कहते हैं कि यह दोनों दैत्‍य लाहौल के विशेष पर्व फागली में आज भी जाहलमा तक जाते हैं और वहां इन दोनों के लिए घास से बने जूते जिन्‍हें पुला कहते हैं,हुक्‍का व पकवान इत्‍यादि सहित अलग से छत में भोज स्‍वरूप रख दिए जाते हैं.सुबह देखने पर स्‍थानीय लोगों को ऐसा प्रतीत होता है मानो सचमुच वह दोनों खा-पी कर गए हों.लोगों में एक मान्‍यता यह भी है कि मन्दिर में दर्शन के पश्‍चात चलो शब्‍द नहीं कहना चाहिए अन्‍यथा दोनों राक्षस भी साथ चल कर अनर्थ कर सकते हैं.


      बुद्व धर्म के अनुयायी माता म्रकुला को देवी दोरजे फूगमो या वजरवाही का ही अवतार मानते हैं.लोकमुखानुसार उदयपुर गांव में पीने के पानी की बेहद किल्‍लत थी.गांव के आस-पास विशाल मयाढ नाला और चनाव नदी बहने के बावजूद लोगों को पीने के पानी के साफ स्‍त्रोत का आभाव था.कहा जाता है कि उसी युग में एक सिद्वि लामा उदयपुर में पधारे और उन्‍होनें देवी फोगमो के मन्दिर में खूब पूजा-तपस्‍या की.इस लामा को पानी के आभाव का ज्ञान हुआ और उन्‍होंने अपनी म्रत्‍यू से पूर्व यह घोषणा की कि यदि उनके शव को म्रकुला माता के मन्दिर के सामने अग्नि दी जाएगी तो वह कुछ निजात अवश्‍य दिलाएगी.किन्‍तु सिद्वि लामा की बात को लोगों ने तवज्‍जो नहीं दी और मन्दिर के प्रांगण में सिर्फ उन के कपडों से बने जूते यानि बापचा जलाए और पूर्ण शरीर का दाह संस्‍कार गांव के नीचे चनाव नदी के मुहाने में किया.कहते हैं कि इस के कुछ समय बाद मन्दिर के प्रांगण में तथा गांव के बि‍हाल में पानी के चश्‍मे फूट पडे.नदी के मुहाने वाले  इलाके के चश्‍मे के पानी का कतई फायदा न हुआ और वह सीधे बहने लगा.बाद में स्‍थानीय लागों को इस बात का एहसास हुआ किन्‍तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी.आज भी मन्दिर के दायें ओर तथा नदी के पास पीने का स्‍वच्‍छ जल निकलता रहता है.


अन्‍य देवी-देवता तथा रिवाज
  
        उदयपुर से उतर-पूर्वी दिशा की ओर एक बेहद खूबसूरत घाटी है जिसे विशाल मयाढ नाले के नाम से ही मयाढ घाटी कहा जाता है.इस घाटी के लोगों की बोली एवं रिति-रिवाज थोडा भिन्‍न है.यहां के लोग अपने ग्रह देवता क‍ो तपा कहते हैं और हर वर्ष फसल बीजने से पूर्व उसे पूजते हैं.इस अवसर पर एक पर्व भी मनाया जाता है और तीर-अन्‍दाजी के मुकाबले का भी आयोजन किया जाता है जिसे धाचांग कहा जाता है.गांव के सभी युवा एकत्रित हो कर एक प्रकार के नशीले पेय पदार्थ छांग का सेवन कर सामुहिक न्रत्‍य भी करते हैं.कुछ इस प्रकार का मिलता-जुलता त्‍यौहार गाहर घाटी के कई गांवों में भी मनाया जाता है.


       जोबरंग गांव के नजदीक शिव के पुत्र कार्तिक का मन्दिर है जिसे पूर्व में बडी श्रधा से पूजा जाता था.यहां नजदीक के गांव रापे और राशेल से पवित्र मणी महेश को जाने का रास्‍ता भी है और रास्‍ते में कुगती जोत के नजदीक कार्तिक स्‍वामी का एक अन्‍य मन्दिर भी है जिसे केलिंग देवता के नाम से जाना जाता है.शायद इसी केलिंग देवता के नाम से लाहौल के मुख्‍यालय का नाम केलंग पडा हो.

      थिरोट गांव के पार यवालंग गांव में भैरव देवता का मन्दिर है

    
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स्पिति का इतिहास


      स्पिति एक प्रथक भौगोलिक इकाई है जिस की विशेष्‍ाताऐं लाहौल घाटी से बिल्‍कुल भिन्‍न हैं. स्पिति क्षेत्र यहां बहने वाली मुख्‍य नदी स्पिति व इस के सहभागी एक अन्‍य छोटी नदी पिन के समस्‍त इलाके में,लिंगती की घाटी और कुछ सतलुज नदी की ओर कुल 2931 वर्ग मील क्षेत्र में फेला है.तिब्‍बती या भोटी भाषा के अर्थ में स्पिति से अभिप्राय ''मध्‍य देश''से है.स्पिति को विशेष भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार एवं अपनी प्रथक विशेश्‍ताओं की वजह से एक जीता जागता संग्राहलय भी माना जाता है.


      स्पिति में प्रवेश के कई मार्ग हैं.वर्तमान समय में गाडियों द्वारा किन्‍नौर के चांगो घाटी से व लाहौल के ग्रांफू से पहुंचा जा सकता है.पुराने पैदल मार्ग कुल्‍लू के हामटा जोत से बाथल तक व पार्वती व सेराज  घाटी के रास्‍ते भाबे व रूपिन पास के उच्‍च दुर्गम मार्गों से पिन घाटी पहुंचा जा सकता है.स्पिति घाटी के शिपकिला दर्रे से तिब्‍बत एवं चीन को जाने का सुगम रास्‍ता भी है जहां से पूर्व में खुला व्‍यापार चलता था.कुल्‍लू से लगते हामटा जोत का रास्‍ता बेहद खूबसूरत है और इस में पीर पांजाल की कुछ खूबसूरत श्रंखलाऐं जैसे कि देउ टिब्‍बा व इन्‍द्रासन भी आते हैं.इस राह में पुराने पिति ठाकुरों के छोटे-छोटे दुर्गों के अवशेष भी देखने को मिलते हैं.लाहौल के ग्रांफू से जाने वाली राह में लगभग 15,500 फीट उंचा कुन्‍जुम दर्रा व बाथल नामक जगह के नजदीक 11,000 फीट उंचा बडा शिगरी ग्‍लेशियर भी है.


         स्पिति राज्‍य में सम्‍भवतःकुछ अरसे तक सतलुज नदी के बुशहर व कुल्‍लू राज्‍य का पंदरबीस कोठी का इलाका भी सम्मिलित रहा किन्‍तु स्‍वंय यह राज्‍य काफी समय तक उपरी सतलुज से लगते शक्तिशाली घुगे सामराज्‍य के अधीन रहा.जैसा कि उपर बताया गया है कि स्पिति के पिन घाटी के लिए कुल्‍लू के सैराज व निरमण्‍ड के उपरी इलाके के दर्रों से भी रास्‍ता था और लोग किन्‍नौर की बजाए वहीं से आते-जाते रहते थे.इस बात का प्रमाण कुल्‍लू के निरमण्‍ड में उपलब्‍ध और वहां स्पिति के राजा को समर्पित लेखों से पता चलता है.स्पिति मध्‍ययुग में अधिकतर तिब्‍बती सामराज्‍य का हिस्‍सा बना रहा.


          लाहौल पर कुल्‍लू का अधिपत्‍य कई सदियों में रहा किन्‍तु स्पिति कभी भी पूर्ण रूप से कुल्‍लू के अधीन नहीं रहा.बहुत बाद में 19 स्‍वीं  सदी में केवल कुछ समय तक अंग्रजें ने भारत पर कब्‍जा करने के पश्‍चात इसे कुल्‍लू राज्‍य का एक प्रशासनिक इकाई बनाए रखा.


सेना वंश के शासकों का राज


            मध्‍य युग के  सातवीं सदी में स्पिति में सेना नामक शासकों का राज्‍य था.इस बात का साक्ष्‍य कुल्‍लू के निरमण्‍ड गांव के प्रसिद्व परशूराम मन्दिर से प्राप्‍त ताम्र पत्र से हुआ है जिसे स्पिति के किसी समुद्र सेन नामक शासक ने दिया था.पडोसी राज्‍य कुल्‍लू के ऐतिहासिक विवरिणयों में भी इसी सेना वंश के दो अन्‍य राजाओं का उल्‍लेख आता है.इन में से एक राजेन्‍द्र सेन ने कुल्‍लू के समकालीन शासक रूद्रपाल(600-650 ई.) के समय में कुल्‍लू पर आक्रमण किया था.ततपश्‍चात एक अन्‍य सेना राजा के अधिनस्‍थ कुल्‍लू का इलाका काफी समय तक रहा.काफी अरसे बाद कुल्‍लू के राजा प्रसिद्व पाल ने रोहतांग में स्पिति के राजा चेत सेन के साथ युद्व कर उन्‍हें पराजय कर पुनः मुक्ति हासिल की.इस युद्व में चम्‍बा के राजा की सैनिक टुकडी ने स्पिति के सेनिकों का साथ दिया था किन्‍तु उन की पराजय हुई.स्पिति की हार के पश्‍चात तिब्‍बती सैनिकों ने  तुरन्‍त यहां कब्‍जा कर लिया और वहां सेना वंश का खात्‍मा कर दिया.कुल्‍लू के राजा संसारपाल ने इस में तिब्‍बतियों का साथ दिया,फलस्‍वरूप उसे स्पिति के तीन गांव कर प्रप्ति हेतू प्राप्‍त हुए जबकि स्पिति के पूर्व  शासक चेत सेन के पुत्र को मात्र एक छोटी सी जागीर थमा दी गई.


लदाखी प्रभुत्‍व


              तिब्‍बत के लहासा में सन 975-1000 के करीब लंगदरमा के पडपोते स्‍कील्‍दे न्‍यामगोन का सामराज्‍य स्‍थापित हुआ,वह बडा पराक्रमी शासक था और उस के राज्‍य की सीमाऐं बहुत अधिक विस्‍त्रत थीं.अपनी म्रत्‍यू से पूर्व न्‍यामगोन ने अपना सारा सामराज्‍य तीन पुत्रों में बांटा.सबसे छोटे पुत्र लदेछुगोन को स्पिति और जंसकर का इलाका मिला.लदेछुगोन का राज्‍य लेह में बडे भाई की दया में ही चल रहा था.


            इसी मध्‍य दसवीं एवं ग्‍यारवीं सदी में स्पिति में धार्मिक गतिविधयां बहुत बढ गईं थीं और तिब्‍बत के कई शासकों ने बुद्व धर्म अपना लिया था और इस के प्रचार-प्रसार में डट गए थे.लगभग 1000 ई.में एक लदाखी राजा ब्‍यागछुप सेमस्‍पा ने स्पिति के ताबो मठ की स्‍थापना के आदेश दिए.इस राजा के शासन अवधि के पचास वर्ष बाद घुगे सियासत के लामा राजा ब्‍यांगछुप लोद ने भी ताबो मठ के पुर्ननिमार्ण में सहायता की.उस के तुरन्‍त अतराधिकारी तोईलिंग के यशेसोद का वर्णन भी स्पिति के पुरातत्‍व लेखों में मिलता है.इस से यह प्रतीत होता है कि स्पिति अधिकतर घुगे व लदाखी शासकों के अधीन रहा.


            लदाख के शासक लाचेन उतपाल (1125-50 ई.) ने समस्‍त लाहौल-स्पिति व कुल्‍लू को फतह कर अपने अधीन रखा.सोलहवीं सदी में भी लदाखी राजा जमयंग नामग्‍याल(1560-90 ई.)के काल में भी सम्‍पूर्ण स्पिति लदाख के अधीन रहा किन्‍तु इस बीच लदाख में बलतियों के आक्रमण के पश्‍चात यह कुछ समय के लिए स्‍वतन्‍त्र हुआ.बलतियों के जाने के पुनः लदाखी राजा सैंगी नामगयालन(1590-1620 ई.) ने स्पिति के मनी क्षेत्र तक कब्‍जा बनाए रखा और उस के उतराधिकारी घघा छेरिंग नामगयाल ने स्पिति के मुख्‍य किले डांखर पर अधिकार कर लिया.उस की म्रत्‍यू के पश्‍चात सबसे छोटे पुत्र डेचोग नामगयाल(1620-1640 ई.) को इसका स्‍वामित्‍व प्राप्‍त हुआ.


लदाख और ल्‍हासा का युद्व


         सन 1623 में मोरेवियन मिशनरी जीजस फादर दअन्‍द्रा जब स्पिति के भ्रमण पे गए तो उन के अनुसार स्पिति का इलाका घुगे राज्‍य के प्रतिनिधि राजा के तहत था और वह छापरांग महल में रहते थे.इस राजा का सम्‍बन्‍ध पुरोग के लदे वंश से था.इसी मध्‍य सतहरवीं सदी के अन्‍त के दशकों में मंगोलों द्वारा पूर्वी तिब्‍बत के ल्‍हासा पर कब्‍जा करने के फलस्‍वरूप उन्‍होनें पश्चिम दिशा में लदाख पर भी आक्रमण कर दिया.तिब्‍बती लेखों में यह युद्व लदाखी राजा देलदान के पुत्र देलगेस नामगयाल के समय में लदाख और ल्‍हासा के बीच हुआ.मंगोलों ने इस युद्व में ल्‍हासा का साथ दिया.अति दुविधा की स्थिति देखते हुए लेह के शासक देलगेस ने काश्‍मीर से मुगलों की सेना से सहायता मांगी.ततपश्‍चात लदाख की सीमा के साथ लगते बासगो में लदाखी मुगलों और मंगोलों तिब्‍बतियों के मध्‍य युद्व हुआ और मंगोलों को  पीछे खदेड दिया गया.यह शांन्ति कुछ समय तक रही और मंगोलों ने  कई  बार पुनः लेह पर आक्रमण किया और अन्‍ततः देलगेस लामगयाल को सन्धि के लिए विवश किया.इस सन्‍धि द्वारा उसे समस्‍त घुगे राज्‍य जिस में स्पिति भी शामिल था,का सर्मपण करना पडा.कहा जाता है कि बाद में लदाखी राजा देलगेस नामगयाल ने तिब्‍बती सेना के किसी महानायक की पुत्री से विवाह कर स्पिति के इलाके को दहेज स्‍वरूप प्राप्‍त कर लिया.अतः सन 1680 से 1700 तक स्पिति में लदाखी अधिपत्‍य रहा.


लियुंगती के किले


          इसी मध्‍य कुल्‍लू के शासक मान सिंह ने छिट-पुट आक्रमणों द्वारा स्पिति पर कब्‍जा करने की कोशिश की किन्‍तु वह इसे लदाख के अधिपत्‍य से अलग न कर सका.सिपति के पिन घाटी के रूपिन तथा सुमदो के पास दो दुर्ग थे जिन्‍हें लयुंगती खार के नाम से जाना जाता था,जिस का शाब्दिक अर्थ था-कुल्‍लू के किले.सम्‍भवता यह किले कुल्‍लू के राजा मान सिंह द्वारा बनाए गए हों.कुछ बुद्विजीवियों के मुताबिक यह दुर्ग शायद मंगोलों के आक्रमण से बचाव हेतू बनाए गए हों.अंग्रेज इतिहासकार सर एल.डेन के अनुसार यह किले राजा जगत सिंह द्वारा सतारवीं सदी के मध्‍यस्‍थ में बनाए गए हैं.शायद उस समय स्पिति के कुछ इलाके की जनता कुल्‍लू को एवं बाकि लदाख राज्‍य को कर देते थे.


लदाखी प्रशासन व नुमायदे


          लदाखी राजा की ओर से स्पिति में एक गर्वनर नियुक्‍त था जो फसल कटाई के समय उपस्थित हो कर अनाज की पैदावार में से कर लेता था.हर गांव में एक मुख्‍या या जादपो नियुक्‍त था जिन की प्रशासनिक सहायता के लिए के लिए एक वजीर नियुक्‍त था जिसे खलून कहते थे.यह लोग कुछ पेशेवर खानदानी होते थे.इस प्रकार के व्‍यवस्‍था का ब्‍यौरा प्रसिद्व घुमक्‍कड एवं इतिहासकार मुरक्राफट के यात्रा सहयोगी मिस्‍टर टैरबैक जो सन 1621 में स्पिति पधारे थे,के यात्रा विव‍रणियों में मिलता है.यदि गहन अध्‍यन करें तो पता चलता है कि स्पिति का क्षेत्र हमेशा पडौसी राज्‍यों लदाख,बुशहेर और कुल्‍लू की दया पर कायम रहा.प्रसिद्व अंग्रेज इतिहासकार मिस्‍टर गैरार्ड के अनुसारसन 1776 में बुशहेर के सेनिकों ने डांखर के किले पे कब्‍जा कर इसे दो वर्ष तक अपने अधीन रखा था.ऐसा ही व्रतान्‍त अंग्रेज इतिहासकार टैरबैक के अनुसार है,सन 1819 में कुल्‍लू के वजीर सोभा राम ने स्पिति पर आक्रमण करने के लिए कुछ सैनिकों को कुन्‍जम जोत के रास्‍ते भेजा था. 


            अत्‍याधिक कठिन भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से यहां की जनता कठोर जीवन यापन करती थी और बाहरी आक्रमणकारियों से लडने में कतराती थी.कहते हैं जब भी यहां आक्रमण हुए तो लोग गांव,खेत इत्‍यादि छोड कर पहाडों में छिप जाते थे.लिखित इतिहासों में ऐसे तीन मुख्‍य आक्रमणों का विवरण है.सतारहवीं सदी के उतरार्द्व में लदाखी सेना ने यहां घुस पैठ की और उन्‍हें रास्‍ता खराब होने की वजह से सर्दियों में स्पिति में ही रहना पडा.स्पिति के स्‍थानीय लोगों ने सलाह मशविरा करने के पश्‍चात आक्रमणकारियों से गुप्‍त रूप से निपटने की ठान ली.उन्‍होनें मित्रता दिखा कर पहले लदाखी सेनिकों की टुकडी को भोज पर आमिन्‍त्रत किया और उन्‍हें छांग नामक एक स्‍थानीय नशीला पेय पिला कर मारना शुरू किया.नशे की हालत में लदाखी सैनिक उन से लडने में अस्‍मर्थ थे अतःउन्‍होनें जान बचाने के लिए डंखर किला जो कि शिचलिंग गांव के उपर पहाडी पर था, की ओर भागना शुरू किया.स्पिति वासियों ने क्रोध में उन्‍हें वहां से फैंक कर मार डाला.










       





         
   


   
                


                                                                                      (क्रमशः)